Thursday 3 October 2013

“राजा सारंगा माझा सारंगा”

राजा सारंगा माझा सारंगा”                           
                  …………………..कहानी: शिशिर कृष्ण शर्मा

(कथाबिंब / जुलाई-दिसम्बर 2007 में प्रकाशित !!!)

सोने का थाल ढलका, समंदर सुनहरी चादर में सिमट गया। दूर क्षितिज पर कुछ बिंदु उभरे...काले...स्याह...और फ़िज़ाओं में स्वर लहरियां गूंजने लगीं...’राजा सारंगा...माझा सारंगा...दरियाचा पणियाला आयलयं तूफ़ान उधानं!...मेरे राजा...मेरे प्रिय...समंदर में ज्वार उठने लगा है...आओ, इस तूफ़ान को पिएं...’! घरों से दूर, समंदर के बीच कई-कई दिन बिताने के बाद मछुआरे वापस लौटते हैं तो समूची बस्ती उत्सव में डूब जाती है...गीत-संगीत से सराबोर, जिसमें विरह है, वेदना है, प्रेम है, आवेग है, ऊर्जा है, उल्लास है...दलदली ज़मीन, नारियल के पेड़, नमक के खेत और मैनग्रोव की घनी झाड़ियों को दावानल की तरह लीलता हुआ ये महानगर भले ही लगातार अपने पंजे फैलाए जा रहा हो, लेकिन यहां के इन मूल बाशिंदों की सांस्कृतिक जिजीविषा से पार पाना उसके लिए संभव नहीं। गगनचुंबी अट्टालिकाओं के बीच टापुओं की भांति बसी इन बस्तियों ने हमेशा से अपने आप को, अपनी संस्कृति को बचाए और जिलाए रखा है, प्रकृति के उस नियम पर चलते हुए, जो कहता है कि दावानल के बीच भी जीवन हमेशा मुस्कुराता रहेगा। बरसों से ये सिलसिला इसी तरह चला रहा है...अनवरत !

क्षितिज पर उभरे बिंदु सुनहरी चादर पर फिसलते हुए क़रीब आए और किश्तियों में तब्दील हो गए। पास की कोली बस्ती में उत्साह और उल्लास अपने चरम पर पहुंच गया...राजा सारंगा...माझा सारंगा...! ढोल-ताशे की इस लय-ताल को सुन, कल तक प्रेमादेवी के भी पैर थिरकने लगते थे और बूढ़ी रगें ऊर्जा से भर-भर उठती थीं। मस्ती में डूबे इन कोलियों से कोई सीधा रिश्ता होते हुए भी वो उनके उत्साह और उल्लास की ओर से ख़ुद को निर्लिप्त नहीं रख पाती थीं। लेकिन आज इस सब से बेख़बर वो अपने-आप में खोई हुई थीं। उनके सामने था अरब सागर का अनंत विस्तार...लेकिन जहां नज़र जाती, बस वोही चेहरा उभर आता और रह-रहकर कानों में वो आवाज़ गूंजने लगती, ‘वक़्त आने दो, सोने में मढ़वा दूंगा तुम्हें...’!

वक़्त...! बेरहम वक़्त...! आह...! प्रेमादेवी के मन में एक टीस सी उठी।...इन साठ बरसों में सब कुछ बदल गया। वो जवानी रही, ही वो लोग...एक एक कर सब बिछुड़ते चले गए...और आज !...हे ईश्वर ! प्रेमादेवी ने पलकें भींचीं तो दो बूंद आंसू टपककर गालों की झुर्रियों में सिमट गए। 

साठ बरस पहले उन्होंने यहां कदम रखा था तब ये महानगर ठीक से एक नगर की शक़्ल भी नहीं ले पाया था। घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर...अनजान सी जगह...अजनबी से लोग। शादी कब हुई ये तो प्रेमादेवी को याद नहीं, शायद गोद में ही रही होंगी। लेकिन पन्द्रह बरस की उम्र में गौना हुआ, मां-बाप भाई-बहन पीछे छूटे और तीसरे ही दिन वो ससुराल से भी विदा हो गयीं। ससुराल भी सिर्फ़ नाम के लिए था, मां-बाप ने बेटी ब्याही तो भरे-पूरे परिवार में थी लेकिन कुछ ही दिनों बाद फैली महामारी ने सब कुछ ख़त्म कर दिया था। किसी चमत्कार की भांति पूरे परिवार में सिर्फ़ श्याम ही बच पाया था घर-गृहस्थी के जगमगाते सपनों ने दो दिनों के सफर के बावजूद थकावट का ज़रा भी अहसास नहीं होने दिया प्रेमादेवी को। उन्हें क्या पता था कि ये शहर उनके लिए शेर की मांद सा साबित होगा जिसमें निरीह जानवरों के पंजों के अंदर जाने के निशान तो होते हैं, बाहर आने के नहीं।

मम्मीजी खाना लगा दूं’? – नागम्मा के इस सवाल से प्रेमादेवी की तन्द्रा भंग हुई।भूख नहीं है...तू खा ले’! – प्रेमादेवी ने कहना चाहा लेकिन ज़ुबान तालू से चिपककर रह गयी। प्रत्युत्तर में वो सिर्फ़ सर हिलाकरनाकह पायीं और फिर से एक बार उन्होंने पलकें भींच लीं। मन का भारीपन माहौल पर भी तारी हो उठा। कुछ तो बढ़ती उम्र का तक़ाज़ा...कुछ एक एक कर संगी-साथियों का बिछुड़ते जाना! कहा नहीं जा सकता, ये मजबूरी थी या अपना खोजा सुख, एकाकीपन प्रेमा देवी को रास चुका था। पिछले छह बरसों से उन्होंने अपने इस विशाल फ़्लैट से बाहर कदम नहीं रखा था, कभी इसकी ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई उन्हें। कई बरस पहले परिचारिका के रूप में कदम रखने वाली नागम्मा आज इस घर की धुरी जो बन चुकी थी। प्रेमादेवी को मुक्त करते हुए नागम्मा ने घर-बाहर के दायित्वों का तमाम बोझ बख़ूबी अपने कंधों पर उठा लिया था।

वक़्त की परतों के नीचे दबे जिस धुंधलाए अतीत को अब तक प्रेमा देवी नजरअंदाज़ करती आयी थीं, आज एकाएक वो किसी पिशाच की भांति उनके सामने खड़ा हुआ था। प्रेमादेवी ने भरसक कोशिश की उसके पंजों से ख़ुद को बचाने की, लेकिन उसकी ताक़त के आगे वो बेहद कमज़ोर साबित हुईं। साठ बरस पहले का वक़्त उनकी आंखों के सामने ताज़ा हो उठा जब सुघड़ता के साथ उन्होंने किराए की खोली में अपनी गृहस्थी जमायी थी। कहां तो मायके का हवेलीनुमा मकान, खेत-खलिहान, ताज़ा आबोहवा...और कहां गंदगी से बजबजाती गलियों की भूलभुलैया के बीच यहां पति की किराए की खोली। लेकिन चेहरे पर शिकन नहीं आने दी प्रेमा ने। शायद ये अपराधबोध ही था श्याम का, जो प्रेमा को बांहों में समेटकर वो उनके कानों में बुदबुदाया था, ‘मायावी है ये शहर! यहां कब किसकी क़िस्मत खुल जाए पता नहीं चलता। मैं जानता हूं, ये जगह तुम्हारे रहने लायक नहीं, लेकिन वक़्त आने दो, हमारा भी बंगला होगा, मोटर होगी, नौकर चाकर होंगे, सोने में मढ़वा दूंगा तुम्हें...वो दिन दूर नहीं जब तुम रानी की तरह राज करोगी’!...और श्याम के सपनों में ख़ुद भी खोई प्रेमा ने उसके सीने में मुंह छुपा लिया था। लेकिन कड़ी मेहनत के बावजूद श्याम के सपने सिर्फ़ सपने ही बने रहे। वो इस शहर की, सपने बेच-बेचकर सपने जगाती उस सतरंगी दुनिया का हिस्सा था, जिसके रंगों में सराबोर होने के सपने लिए सैकड़ों लोग रोज़ाना यहां खिंचे चले आते हैं।देखना वो दिन बहुत जल्द आएगा जब हर ज़ुबां पर मेरा नाम होगा...लोग मेरी बनायी धुनें गुनगुनाएंगेकहते हुए श्याम का चेहरा आत्मविश्वास से दमक उठता था। लेकिन गुज़रते वक़्त के साथ उसके ये शब्द कमज़ोर पड़ते चले गए। काम की तलाश में वो अपना बाजा लेकर अलस्सुबह घर से निकल पड़ता...और जब रात गए लौटता, तो झुकी नज़रें और सूखे होंठ उसकी ख़ाली जेब और डूबती आशाओं की चुगली करने को पर्याप्त होते थे। सोने में मढ़े जाने की लालसा लिए प्रेमा के शरीर से जब नाक की लौंग तक के जुदा होने की नौबत गयी तो उनके मन में श्याम के सपनों के ही नहीं, ख़ुद श्याम के प्रति भी वितृष्णा जन्म लेने लगी। लेकिन श्याम की कही एक बात तो सही साबित हुई। सचमुच मायावी था ये शहर। मजबूरी में ही सही, लेकिन इस शहर के जादू ने प्रेमादेवी के मन में कब ख़ुद के सपने जगाए और कब उन सपनों को हक़ीक़त में बदल डाला, पता ही नहीं चल पाया।

सोने के थाल ने रंग बदला, समंदर दहकने लगा। कोली बस्ती में उल्लास अब जुनून की शक्ल ले चुका था...राजा सारंगा... माझा सारंगा...! प्रेमादेवी के मन में फिर एक टीस उठी।हे ईश्वर ! क्यों अनुमति दी मैंने शशांक को अपने क़रीब आने की? क्यों नहीं महसूस कर पायी कि उसका आना ज़िंदगी की इस शाम में मेरे लिए तूफ़ान खड़ा कर देगा? उसकी बातों में लाख ईमानदारी सही, लेकिन भावनाओं को व्यावहारिकता पर क्यों हावी होने दिया मैंने’?...क़रीब छह महिने पहले शशांक का पहला फ़ोन आया था। प्रेमादेवी से मिलने की बेताबी उसकी बातों में साफ़ झलक रही थी। ‘...जो ग़ुज़र गया, उसे याद करने से क्या फ़ायदा? और फिर आज के इस दौर में किसे दिलचस्पी है मेरे जैसों के बारे में जानने की? मैं इसी हाल में ख़ुश हूं’...लाख कोशिश की प्रेमादेवी ने टालने की लेकिन शशांक ने हिम्मत नहीं हारी।सिर्फ़ एक बार मिलना चाहता हूं आपसे, देखिए निराश मत कीजिए’...हर बार शशांक का यही आग्रह होता। और फिर एक रोज़ बेहद भावुक होकर उसने कहा, ‘बचपन से माता-पिता की ज़ुबान से आपका नाम सुनता आया हूं। आज भी उनकी पीढ़ी के लाखों लोग ऐसे हैं जो जानना चाहते हैं कि अब आप कहां हैं, किस हाल में हैं। माता-पिता को अकेला छोड़कर इस शहर में आया हूं। आपके बारे में मेरा लिखा पढ़कर उन्हें बेहद ख़ुशी होगी।...और मैं हर हाल में उन्हें ख़ुश देखना चाहता हूं मां बनने का सुख प्रेमादेवी के भाग्य में भले ही रहा हो लेकिन मां-बाप के सुख को तो वो महसूस कर ही सकती थीं। ज़िद्दी शशांक के लिए जो कर पाना असंभव था, उसे भावुक शशांक ने बेहद आसानी से कर दिखाया। अपने भीतर कुछ पिघलता सा महसूस किया प्रेमादेवी ने !...और जो प्रेमादेवी दशकों पहले गुमनामी में सुख खोजकर घर की चारदीवारी में सिमट चुकी थीं, उनकी तस्वीर शशांक की कलम के ज़रिए एक बार फिर से लोगों के ज़हन में ताज़ा हो उठी, वरना अब तक तो ये मानने वालों की भी कमी नहीं थी कि प्रेमादेवी इस दुनिया में नहीं हैं।

शशांक अगर स्वार्थी होता तो अपनी बिरादरी के अन्य लोगों की तरह काम निकल जाने के बाद वो भी प्रेमादेवी की ओर रूख करता। लेकिन उसने उनसे लगातार संपर्क बनाए रखा। एकाध बार हंसते हुए उसने कहा भी, ‘नहीं नहीं, मैं उस बिरादरी का नहीं हूं। आप बुज़ुर्ग कलाकारों के प्रति उत्सुकताएं और सम्मान तो मेरी फ़ितरत में ही हैं। जब तक मुझे इसमंचकासहारामिला हुआ है, अपना शौक़ पूरा करता रहूंगा, जिस रोज़ मेरे पास ये मंच नहीं रहेगा, कुछ और देखूंगा। इस शहर में काम की कमी है क्या’?...सच में शशांक उस बिरादरी का नहीं था, क्योंकि वो घाघ नहीं था। उसकी ईमानदारी ने प्रेमादेवी को उसके और क़रीब ला खड़ा किया, लेकिन आज...!!!

ज़िंदगी की क़िताब के जिस अध्याय को प्रेमादेवी हमेशा के लिए बंद कर चुकी थीं, उसके पन्ने एक-एक करके उनके सामने खुलने लगे। उन पन्नों में दर्ज इबारतें बताती थीं कि लगातार मिल रही असफलताओं ने किस तरह श्याम के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया था। भीतर उठ रहे झंझावातों को छुपाने की हरेक कोशिश के साथ प्रेमा को वो पहले से कहीं ज़्यादा दयनीय नज़र आने लगता था।  प्रेमा के माथे की बड़ी सी बिंदी और मांग का मुट्ठी भर सिंदूर श्याम को बेहद पसंद थे। एक वक़्त था जब वो सजी-सवंरी प्रेमा के कानों में बुदबुदाता था, ‘बहुत ख़ूबसूरत लग रही हो तुम’!...और प्रेमा शरमा के उसके आग़ोश में सिमट जाती थी। लेकिन हर ग़ुज़रते दिन के साथ जगमगाती दुनिया के पीछे छुपा अंधियारा गहराता रहा और प्रेमा के मन में ज़िंदगी के प्रति विरक्ति बढ़ती चली गयी। लेकिन ज़िंदगी को ठुकरा देना भी तो आसान नहीं था। आख़िरकार जब पेट की आग बर्दाश्त से बाहर हो गयी तो एक रोज़ उन्होंने बाहरी दुनिया के सामने घूंघट उलट दिया।

पुरूष के साए से बाहर निकलकर आयी एक जवान और ख़ूबसूरत औरत को देखकर दुनिया की नज़रें किस तरह बदलती हैं, ये प्रेमा ने पहली बार जाना। हर पुरूष में वो पीछे छूट चुके अपने पिता और भाई को खोजतीं। लेकिन कुछ ही लम्हों में उस चेहरे की जगह लकड़बग्घे का सर उग आता...लिज़लिज़ा...ग़लीज़...ठण्डे गोश्त तक को निगल जाने को तैयार धूर्त लकड़बग्घा। कपड़ों को बींधकर शरीर के एक-एक अंग को टटोलती नज़रों ने शुरूआत में उन्हें बेहद तक़लीफ़ दी। कई बार भीतर ही भीतर रोईं वो। लेकिन दहलीज़ से बाहर निकले कदमों का वापस घर की चारदीवारी में लौटने का मतलब था फिर वोही फ़ाकाक़शी। रास्ते तो उनके सामने हज़ारों थे लेकिन हरेक रास्ते पर लकड़बग्घों के झुंड के झुंड घात लगाए बैठे थे। लंबे वक़्त तक प्रेमा तय नहीं कर पायीं कि किस दिशा में कदम बढ़ाएं...और कैसे। लेकिन जब उन्होंने ख़ुद को दुविधा की स्थिति से उबारा तो एकाएक दुनिया बेहद ख़ूबसूरत हो उठी। औरत होने का जो दुख उन्हें अक्सर सालता आया था, उसके पीछे छुपी अकूत ताक़त को पहचानते ही उन्हें समझ आने लगा कि लार टपकाते लकड़बग्घों को पालतू बनाना कितना आसान है। और तब जन्म लिया एक नयी प्रेमा ने! लेकिन क्या इसकी ज़िम्मेदार वो ख़ुद थीं

नहीं!...इसका ज़िम्मेदार था, ये शहर...ये मायावी शहर !

असफलताएं इंसान से उसका आत्मविश्वास और पुरूषार्थ ही नहीं, आत्मसम्मान और पुरूषत्व तक छीन लेती हैं। यही वजह थी कि प्रेमा के बढ़ते क़द को श्याम ख़ामोशी से देखता रहा। अपनी बेबसी पर दो आंसू तक बहाने की इच्छाशक्ति नहीं रह गयी थी उसमें। प्रेमा के पीछे आ खड़े हुए थे सेठजी...सपने जगाती सतरंगी दुनिया की वो बड़ी हस्ती जो पत्थर को पारस में बदल देने की क़ुव्वत रखते थे। उनका सहारा मिलते ही प्रेमा के क़द ने ऐसा विराट आकार लिया कि श्याम के भीतर प्रेमा के सामने खड़े होने तक की हिम्मत नहीं रही...उस प्रेमा के सामने, जो उसकी ब्याहता थी। लेकिन प्रेमादेवी को भी उस यश, कीर्ति, मान-सम्मान और धन-दौलत की कम कीमत नहीं चुकानी पड़ी। सबसे पहले तो उन्हें श्याम के वजूद को झुठलाना पड़ा...वो श्याम, जिसे उन्होंने अपना सर्वस्व माना था। व्यावसायिकता का तक़ाज़ा था कि आम दर्शकों को उनके विवाहिता होने का पता चल पाए।...और प्रेमा के वजूद को उनके मां-बाप, भाई-बहन, नाते-रिश्तेदारों ने इसलिए ठुकरा दिया था कि उनका ख़ानदान भांड-मिरासियों का नहीं था। अपनों से इस तरह दूर होने की पीड़ा को हलाहल की भांति ख़ामोशी से पी जाना पड़ा था उन्हें। ये व्यावसायिक दबाव ही थे कि कुछ ही दिनों बाद श्याम को उसकी किराए की खोली में अकेला छोड़ उन्हें उस बंगले में चले आना पड़ा, जो सेठजी की आरामगाह और ऐशगाह था। हालांकि मन ही नहीं, कदम भी बेहद भारी हो उठे थे उस वक़्त उनके। बरसों तक वो श्याम के निर्विकार चेहरे और पथराई आंखों को भुला नहीं पायी थीं।

वक़्त ग़ुज़रा...! नगर महानगर में तब्दील हो गया। बंगले की जगह अट्टालिका ने ले ली। प्रेमादेवी की पीढ़ी पुरानी हो गयी। और फिर एक वक़्त आया जब सेठजी नहीं रहे। प्रेमादेवी को पटरानी का दर्जा दे पाना तो उनके लिए संभव नहीं था, लेकिन जाने से पहले वो इतना ज़रूर कर गए कि उनके बाद प्रेमादेवी को किसी का मोहताज होना पड़े।...और फिर जैसे जैसे संगी-साथी बिछुड़ते रहे, प्रेमादेवी अपने आप में सिमटती चली गयीं।

..........लेकिन आज ???

हर शाम की तरह आज भी प्रेमादेवी बालकनी में बैठी समंदर की लहरों को गिन रही थीं कि शशांक का फ़ोन आया। बेहद ठंडी आवाज़ में बिना किसी लाग-लपेट के उसने कहा, ‘आपको पता चला श्याम जी गुज़र गए’?...और प्रेमादेवी के बूढ़े शरीर में सिहरन दौड़ गयी।श्याम से मेरे रिश्ते की जानकारी तो उस ज़माने में भी शायद ही किसी को रही हो। शुरूआत में वो समंदर के किनारे खड़ा बंगले की ओर टकटकी लगाए दिखता भी था तो मैं ही खिड़की बंद कर लेती थी। हालांकि ऐसा नहीं कि उसकी बेचारगी मुझे रूलाती हो, लेकिन मैं भी तो बेबस थी। अब बरसों से मुझे ख़ुद भी उसके बारे में कुछ नहीं पता। फिर कल के पैदा हुए इस छोकरे ने उसे कहां से ढूंढ निकाला’?...इस सवाल ने पलभर में उनके मनोमस्तिष्क को बेतरह झंझोड़कर रख दिया। अनजान बनने की कोशिश करते हुए उन्होंने पूछा, ‘श्याम कौन’? लेकिन ख़ुद की आवाज़ किसी अंधे कुएं में से आती महसूस हुई उन्हें।

देखिए, मैं सब जानता हूं...और तब भी जानता था जब आपका इंटरव्यू करने आया था। लेकिन मेरी कोशिशों के बावजूद आप अपने अतीत के इस हिस्से को साफ़ छुपा गयीं और मेरे उसूलों ने इजाज़त नहीं दी कि बिना आपकी अनुमति के कुछ भी लिखूं। कहा , मैं उस बिरादरी का हिस्सा नहीं हूं’!...और इसके आगे शशांक ने जो कुछ कहा, उसका लब्बोलुआब यही था कि पिछले कुछ सालों से श्याम का मानसिक संतुलन ठीक नहीं था, कुछ महिनों से वो बीमार चल रहे थे, दो दिनों से उनकी खोली का दरवाज़ा बंद था, आज दोपहर दरवाज़ा तोड़ने पर उनकी मौत का पता चला और लावारिस का ठप्पा लगाकर पुलिस ने उनकी लाश को नगरपालिका के अस्पताल पहुंचा दिया। श्याम के कमरे से पत्र-पत्रिकाओं में छपी प्रेमादेवी की सैकड़ों तस्वीरें मिली थीं और हरेक तस्वीर के माथे पर लाल स्याही से बड़ी सी बिंदी और मांग में गाढ़ा सिंदूर उकेरा गया था। लाख कोशिश की प्रेमादेवी ने ख़ुद को संयत रखने की लेकिन मन का एक कोना भीग ही गया। और फिर तो यादों के समंदर में डूबती-उतराती प्रेमादेवी जाने कितनी बार हंसीं, रोयीं, मुस्कुरायीं, सिसकियां भरीं...!

चित्र : 'शिशिर' 
दहकता समंदर ठंडा होकर स्लेटी राख में बदल चुका था। सोने का थाल उस राख में ही कहीं गुम हो चला था। कोली बस्ती के उल्लास से कोई तमाम ऊर्जा चुरा ले गया था। रोज़ की तरह घर का कामकाज निपटाकर नागम्मा बालकनी में पहुंची तो देखा, प्रेमादेवी वहां नहीं थीं। नागम्मा को ताज्जुब हुआ क्योंकि बिना उसका सहारा लिए तो प्रेमादेवी खड़ी तक नहीं होती थीं।मम्मीजी’ !...नागम्मा ने पुकारा लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला। घर भर में प्रेमादेवी को खोजती हुई वो उनके कमरे में पहुंची तो उसके मुंह से चीख निकल पड़ी। बरसों हो गए थे उसे प्रेमादेवी की सेवा में रहते लेकिन उनका ऐसा रूप उसने पहले कभी नहीं देखा था। वो नववधु का सा श्रृंगार किए आदमक़द शीशे के सामने खड़ी थीं।

मम्मीजी’ !...साहस बटोरते हुए नागम्मा ने प्रेमादेवी को पुकारा। निर्विकार चेहरा लिए प्रेमादेवी उसकी ओर घूमीं। लाल गोटेदार साड़ी में लिपटी हुईं, कुहनियों तक लाल चूड़ियां पहने हुए, ऊपर से नीचे तक सोने में मढ़ी हुईं, माथे पर बड़ी सी बिंदी और मांग में मुट्ठी भर सिंदूर...आह...! सर्वथा अनिंद्य रूपरंग...अद्वितीय सौंदर्य...अद्भुत तेज...! उनके चेहरे पर नागम्मा की नज़रें टिक सकीं। बरसों पुराना श्रृंगारदान और आभूषणों के दर्जनों खाली डिब्बे बिस्तर पर खुले पड़े थे। नागम्मा जड़वत उन्हें देखती रही...अपनी ही एक-एक धड़कन को साफ़-साफ़ सुनती हुई। उसे महसूस हुआ मानों सामने साक्षात शक्तिरूपा खड़ी हो। कुछ क्षण प्रेमादेवी पथरायी आंखों से नागम्मा को ताकती रहीं...फिर एकाएक उनके कंठ से एक मर्मांतक चीख निकली और वो फूट-फूटकर रोने लगीं। नागम्मा समझ ही नहीं पायी कि अचानक उन्हें हो क्या गया है। प्रेमादेवी का वो करूण क्रंदन...वो आर्तनाद...मरघट में आधी रात को पिशाचिनी का सा उनका विलाप...उफ़्फ़ !...मारे भय के नागम्मा का ख़ून सूख गया। विस्फारित नेत्रों से वो उन्हें रोते-बिलखते देखती रही। अचानक प्रेमादेवी ने अपना सर दीवार पर दे मारा।...और इससे पहले कि नागम्मा आगे बढ़कर उन्हें रोक पाती, वो दोनों कलाईयों को दीवार पर पटकने लगीं। नागम्मा उन्हें सम्भालने की कोशिश करती रही लेकिन वो बार-बार उसकी ग़िरफ़्त से छूटकर पागलों की तरह अपना सर दीवार से टकराती रहीं... कलाईयों को दीवार पर पटक-पटक कर उन्होंने सारी चूड़ियां तोड़ डालीं...और फिर नागम्मा की बांहों में बेहोश होकर गिर पड़ीं।

रात गहराने लगी थी। विरह के लंबे अंतराल और थका देने वाले उत्सव के बाद समूची कोली बस्ती अब मादकता की ग़िरफ़्त में थी। चारों तरफ़ मरघट का सा सन्नाटा पसरा हुआ था। एकाएक दूर कहीं कोई गुनगुना उठा, ’राजा सारंगा...माझा सारंगा...दरियाचा पणियाला आयलयं तूफ़ान उधानं...’ !!!
...................................................राजा सारंगा माझा सारंगा’/ शिशिर कृष्ण शर्मा

(कथाबिंब’ / जुलाई-दिसम्बर 2007 में प्रकाशित !!!)