Monday 27 June 2016

“ पर सपनों पर तो रोक नहीं है " – डॉ. सुनील कैंथोला

पर सपनों पर तो रोक नहीं है " डॉ. सुनील कैंथोला

मुलाक़ात –  उत्तराखंड के जुझारू सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. सुनील कैंथोला के साथ|

घर हमारा...जंगल हमारे...ज़मीन हमारी...पहाड़ हमारे...हक़ हमारा...हम लाभार्थी क्यों बनें?...हम मालिक हैं, हमें पोर्टर और नौकर मत बनाईए...!”

हिमालय खुद ही इन्फ्रास्ट्रक्चर है...हम इसके साथ छेड़छाड़ नहीं होने देंगे...ट्रेकिंग के लिए सड़कों की ज़रुरत नहीं होती...!”  

-डॉसुनील कैंथोला ... व्यंग्योपासनाके साथ हाल ही में हुई लंबी बातचीत के दौरान।

फोटो : वत्सला शर्मा 
प्रस्तुत है डॉ. सुनील कैंथोला के संघर्ष और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी-          


प्राकृतिक संसाधनों पर सरकारी गिद्धदृष्टि


वनविभाग के ठेकेदारों द्वारा जंगलों की अंधाधुंध कटाई के विरोध में साल १९७३ में तत्कालीन उत्तर प्रदेश और अब उत्तराखंड के ज़िलाचमोलीमेंचिपको आन्दोलनशुरू हुआ था| साल १९२५ में चमोली ज़िले के लाता गाँव में जन्मीं गौरादेवी की अगुवाई में शुरू हुआ ये आन्दोलन अगले एक दशक में पूरे उत्तराखंड क्षेत्र में फैल गया था| इस पर्यावरण आन्दोलन की ख़ास बात ये थी कि इसकी बागडोर मुख्यत: महिलाओं के हाथों में थी, जो पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उनसे चिपक जाती  थीं| ‘चिपकोके दौरान गौरा देवी ने नारा दिया था, ‘वन हमारा मैत (मायका) है!’ ये नारा जंगलों के प्रति महिलाओं के प्रेम और अपनत्व को दर्शाता था| चिपको आन्दोलन का आधिकारिक नारा था

क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।

फोटो सौजन्य : सत्यनारायण लॉज फेसबुक पेज 
पर्यावरण संरक्षण की इस लड़ाई का इतिहास सदियों पुराना है जब साल १७३१ में जोधपुर-राजस्थान के खेजड़ली गाँव में हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने की कोशिश में विश्नोई समाज के ३६३ लोग राजा के कारिंदों के हाथों मारे गए थे| उस आन्दोलन की शुरूआत अमृतादेवी और उनकी तीन बेटियों रतनीबाई, आसीबाई और भागुबाई की शहादत के साथ हुई थी, जो काटे जा रहे पेड़ों से लिपट गयी थीं|

उत्तराखंड के मशहूर इतिहासकार और लेखक पद्मश्री शेखर पाठक के अनुसार इस पहाड़ी क्षेत्र में स्वतंत्रता - आन्दोलन का केंद्र यहां के जंगल थे| अंग्रेज़ लगातार यहां के जंगलों का दोहन कर रहे थे जो यहां के निवासियों को मंज़ूर नहीं था| अंग्रेजों के खिलाफ़ उनका आन्दोलन दरअसल जंगलों पर अधिकार का आन्दोलन था| ये जनांदोलन वस्तुत: एक वनान्दोलन था जो देश की स्वतंत्रता के आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था|

सत्यनारायण लॉज / फोटो : वत्सला शर्मा 
स्वतन्त्र भारत का चिपको आन्दोलन भी खेजड़ली के आन्दोलन से ही प्रेरित था|


छीनो-झपटो आन्दोलन


चिपको आन्दोलन में पहाड़ की आम जनता, मुख्यत: महिलाओं ने पेड़ों से लिपटकर उन्हें कटने से बचाया था| उससे पहले तक वनविभाग की भूमिका केवल वनों के दोहन तक सीमित थी| लेकिन साल १९८२ में सरकार ने चिपको आन्दोलन की जन्मस्थली चमोली ज़िले की नीती घाटी के वन्यक्षेत्र को नंदादेवी नेशनल पार्क का नाम देकर स्थानीय निवासियों पर वन-अधिनियम थोप दिया|

इस अधिनियम के तहत आम लोगों पर तमाम प्रतिबन्ध लगा दिए गए| उनके जंगलों में जाने पर पाबंदी लग गयी| नतीजतन चरवाहों के सामने भेड़-बकरियां चराने का संकट खड़ा हो गया| लकड़हारों की रोजी-रोटी छिन गयी| उस क्षेत्र की, मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन पर निर्भर भुटिया जनजाति के सामने जीवन-मरण का सवाल खड़ा हुआ| पहाड़ की अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठ गया|

ट्री-हाऊस - सत्यनारायण लॉज / फोटो : वत्सला शर्मा 
पहाड़ों में लोगों और पालतू पशुओं पर जंगली जानवरों के हमले तो हमेशा से होते आए थे, लेकिन वन-अधिनियम ने लोगों से आत्मरक्षा का अधिकार भी छीन लिया| नतीजतन गांवों में जंगली जानवरों के बेरोकटोक घुसने और गाय-भैंस-भेड़-बकरियों को मार डालने की घटनाएं बेतहाशा बढ़ गयीं| उधर जंगलों में स्थानीय लोगों के प्रवेश पर पाबंदी ने शिकारियों को बेख़ौफ़ बना दिया|

उन्हीं दिनों वन-विभाग ने भालू के हमले में हुई एक व्यक्ति की मौत पर मुआवज़े की मांग को ये कहते हुए ठुकरा दिया कि वन-अधिनियम में सिर्फ़ शिकारी जानवरों के हमले में हुई मौत पर मुआवज़े का प्रावधान है जबकि भालू एक शाकाहारी प्राणी है| हालांकि इसका तोड़ भी वन-विभाग के कर्मचारियों ने खुद ही बता दिया कि कुछ ले-देकर कागजों में इसे शिकारी जानवर के हमले में हुई मौत में बदला जा सकता है| इस तरह वन-अधिनियम ने भ्रष्टाचार के भी तमाम रास्ते खोल दिए|

बरसों तक लोग इन तमाम सरकारी पाबंदियों का शिकार होते रहे लेकिन जब हालात बर्दाश्त से बाहर हो गए तो उन्होंने एक बार फिर से एकजुट होकर साल १९९९ में एक नए और आक्रामक नाम के साथझपटो-छीनो आन्दोलनकी नींव रखी जिसका नारा था, ‘झपटो छीनो अपने अधिकार’|

पहाड़ के लोगों के लिए जंगल ही जीवन था और जीवन पर सरकारी बेड़ियां उन्हें किसी भी हाल में मंज़ूर नहीं थीं|


फोटो सौजन्य : सत्यनारायण लॉज फेसबुक पेज 
उत्तराखंड का निर्माण


झपटो-छीनो आन्दोलनकरीब एक साल चला और सफल भी रहा| तभी नवम्बर २००० में पश्चिमी उत्तरप्रदेश के इस पहाड़ी क्षेत्र को अलग करके उत्तराखंड राज्य बना दिया गया| साल २००१ में तत्कालीन उत्तराखंड सरकार ने एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति (हाई पॉवर कमेटी) का गठन किया जिसने विभिन्न विकासकार्यों के लिए बाहर की कंपनियों को बुलाना चाहा| कमेटी का कहना था कि इससे स्थानीय लोगों को रोज़गार मिलेगा और वो लाभार्थी कहलाएंगे|

हम लोगों ने इसका विरोध किया| हमारी सीधी सी दलील ये थी कि बाहर के लोग यहां जनसेवा के लिए तो आएंगे नहीं| वो यहां आकर पैसा लगाएंगे और फिर जमकर हमारे संसाधनों का दोहन करेंगे| और फिर ज़ाहिर है जो पैसा लगाएगा, मालिक भी वोही कहलाएगा| हमारा ये सन्देश जनमानस में पैठ बनाता चला गया| नतीजतन हमारे विरोध की ताक़त बढ़ती चली गयी|

सत्यनारायण लॉज / फोटो : वत्सला शर्मा 
सरकार की किसी भी दलील को स्वीकारने के लिए जनमानस तैयार नहीं था| बात भी सही थी - घर हमारा, जंगल हमारे, ज़मीन हमारी, पहाड़ हमारे, हक़ हमारा, हम लाभार्थी क्यों बनते? हम मालिक थे, पोर्टर और नौकर कैसे बन सकते थे? सरकार की दलील थी, यहां इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है| हमारा कहना था, हिमालय खुद ही इन्फ्रास्ट्रक्चर है, हम इसके साथ छेड़छाड़ नहीं होने देंगे| हिमालय में ट्रेकिंग को पर्यटन का मुख्य अंग बनाया जा सकता है...और ट्रेकिंग के लिए सड़कों की ज़रुरत नहीं होती !


आन्दोलन, संगठन और माओवाद


हमने अपने संगठन कोएलायंस फॉर डेवलपमेंटका नाम दिया| सरकार की पूंजीवादी समर्थक नीतियों के विरोध में हमारे इस संगठन के साथ तमाम ग्रामीण और समाजसेवी जुड़ते चले गए| ऐसे में राजनेताओं और नौकरशाहों की नींद उड़ना स्वाभाविक ही था| हमारे आन्दोलन को दबाने की हरसंभव कोशिश की जाने लगी| लेकिन जब तमाम कोशिशें नाकाम हो गयीं तो हमेंमाओवादीकहा जाने लगा|

फोटो सौजन्य : सत्यनारायण लॉज फेसबुक पेज 
इसके जवाब में हमनेसंघर्षनामाके नाम से किताब छापी जिसमें अपने संघर्ष की सविस्तार कहानी के साथ हमने लिखा, ‘अगर अपने बच्चों के भविष्य को खिलवाड़ से बचाना माओवाद है तो हम माओवादी ही सही’| उसी दौरान कुछ पत्रकार दोस्तों ने हमें आगाह किया कि सरकार हमारे संगठन को आधिकारिक रूप से माओवादी घोषित किए जाने की योजना बना रही है| हालांकि ऐसा कुछ हुआ नहीं|


पर्यटन को आकार


हमारे पास तो पैसा था, संसाधन|...और सरकार से सहयोग की उम्मीद करना बेमानी था|...पर सपनों पर तो रोक नहीं है ! इसीलिए हमने सपने देखे कि कैसे हम पर्यटन को आकार देंगे| हमने उन सपनों को स्थानीय लोगों के साथ बांटा| हमारे बीच विचारविमर्श हुआ, हरेक मुद्दे पर जमकर बहस हुई और आख़िर मेंनंदा देवी घोषणापत्रबनकर सामने आया, जिसे आज भी विश्वस्तरीय घोषणापत्र माना जाता है|

देवी दर्शन लॉज - औली 
हम सबने मिलकर प्रण किया कि पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए हम जीतोड़ मेहनत करेंगे, लेकिन तो इस क्षेत्र को नशीले पदार्थों का गढ़ बनने देंगे और ही बाल मज़दूरी को बढ़ावा देंगे|


रास्ते आसान होने लगे


नंदा देवी घोषणापत्रने हमारी दुविधाओं को दूर किया, हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाया और हमारे सपनों को व्यावहारिक रूप दिया| अब हमें तमाम रास्ते आसान नज़र आने लगे थे| साल २००२ में हमने पर्यटन से जुड़े ट्रैकिंग जैसे काम शुरू किए| हमारा उद्देश्य स्थानीय युवाओं को रोज़गार उपलब्ध कराने के साथ साथ ये सुनिश्चित करना था कि उनके भीतरनौकरहोने का एहसास नहीं बल्किमालिकहोने का आत्मविश्वास जागे| लेकिन यहां एक गड़बड़ हो गयी| ट्रैकिंग पर जाने वाले विदेशियों से एक ट्रिप का सौ डॉलर मिलता था| उधर एक ट्रिप में के बजाय १० स्थानीय युवक साथ जाने लगे| नतीजतन आमदनी तो दूर की बात, उलटा पैसे का नुकसान होने लगा| ऐसे में ट्रैकिंग और पैसे का तमाम प्रबंधन मुझे अपने हाथ में लेना पड़ा|

देवी दर्शन लॉज - औली 
साल २००८ में हमने पर्यटन संबंधी सभी कार्यक्रमों और गतिविधियों को व्यवस्थित और केंद्रीकृत करने के लिएमाउंटेन शेफर्ड्स इनिशिएटिवके नाम से एक प्राईवेट लिमिटेड कंपनी बनाई जिसके डायरेक्टर पद की ज़िम्मेदारी मुझे संभालनी पड़ी|

पर्यटन से पैसा आना शुरू हुआ तो साल २००९ में हमने उत्तरकाशी में ५५० गज ज़मीन खरीदी| हमारे सामने चुनौती ये थी कि इस कंपनी को इसके असल मालिक यानी पहाड़ के ग्रामीणों को कैसे सौंपें| हमने ग्रामीण युवकों को बुलाकर कहा, ‘ये तुम्हारी ज़मीन है, इस पर काम करो|’ उन्होंने ज़मीन की सफ़ाई की, पत्थर तोड़े, दीवार बनाई, जीतोड़ मेहनत की, और बदले में हमने उन्हें शेयर दिए|


देवी दर्शन लॉज - औली 
अगला कदम


हमें युवकों को पर्यटन से पैसा कमाना सिखाना था| उत्तरकाशी स्थित विश्वप्रसिद्धनेहरू इंस्टिट्यूट ऑफ़ माउंटेनियरिंगपर्वतारोहण के शौक़ीनों को पहाड़ों पर चढ़ना तो सिखाता है लेकिन पैसा कमाना नहीं सिखाता| इसलिए हमने साल २०११ में अपना ही एक संस्थान खड़ा किया| ‘नंदादेवी इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवेंचर स्पोर्ट्स एंड आउटडोर एजुकेशन प्राईवेट लिमिटेडनाम का ये संस्थानमाउंटेन शेफर्डका ही एक हिस्सा है| इसका डायरेक्टर पद भी मैंने ही सम्भाला|

उत्तरकाशी में साल २००९ में ख़रीदी गयी ५५० गज ज़मीन आज एक हेक्टेयर हो चुकी है| इस ज़मीन पर हमनंदादेवी संस्थानको विकसित कर रहे हैं| इस संस्थान में हम राज्य आपदा प्रबंधन बल’ (एस.डी.आर.एफ़.) और स्थानीय युवकों के लिए आपदा प्रबंधन का प्रशिक्षण शुरू करने जा रहे हैं| इसके अलावाएडवेंचर स्पोर्ट्सके शौक़ीन देसी-विदेशी युवाओं को भी प्रशिक्षण दिए जाने की योजना है|
फ़ेसबुक लिंक : https://www.facebook.com/nandadeviinstitute/


फोटो सौजन्य : सत्यनारायण लॉज फेसबुक पेज 
औली में माउंटेन शेफर्ड्स


एडवेंचर स्पोर्ट्स - ख़ासतौर से स्कीइंगऔर ट्रैकिंग के लिए विश्वप्रसिद्ध चमोली ज़िले केऔलीमें माउंटेन शेफर्ड्स की देवीदर्शन लॉज देसी-विदेशी पर्यटकों की पसंदीदा शरणस्थली है| साल २०१३ में हुए एक ऑनलाइन सर्वे में इसे भारत की सर्वश्रेष्ठ १० पर्वतीय संपत्तियों में जगह मिली थी|

माउंटेन शेफर्ड्स द्वारा चमोली ज़िले की नीती घाटी की भुटिया महिलाओं द्वारा बनाए कालीनों को अमेरिका में प्रोमोट भी किया जा रहा है| इन कालीनों की ख़ासियत इनमें इस्तेमाल किए जाने वाले प्राकृतिक रंग हैं जिन्हें स्थानीय वनस्पति से तैयार किया जाता है| इसके लिए माउंटेन शेफर्ड्स ने इस क्षेत्र में कालीन-रंगाई की एक यूनिट भी स्थापित की है|


सत्यनारायण  स्थित गेस्टहाऊस


फोटो सौजन्य : सत्यनारायण लॉज फेसबुक पेज 
पूरे उत्तराखंड में, जंगलों में बने गेस्टहाऊसों समेत कभीकभार ही इस्तेमाल में आने वाली वनविभाग की ऐसी तमाम संपत्तियां बिखरी हुई हैं जिनका पर्यटन, हॉस्पिटैलिटी और मार्केटिंग के क्षेत्र में व्यावसायिक उपयोग किया जा सकता है| हाल ही में हमने उत्तराखंड वननिगम के साथ मिलकर सत्यनारायण के जंगलों में स्थित वनविभाग के क़रीब १३५ साल पुराने गेस्टहाऊस से अपने इस प्रयोग की शुरूआत की है|

ये क्षेत्र राजाजी नेशनल पार्क का हिस्सा है और जंगली हाथी, तेंदुए, हिरण और काकड़ के अलावा चिड़ियों की विभिन्न प्रजातियों के लिए जाना जाता है| माउंटेन शेफर्ड्स से जुड़े हुए, उत्तरकाशी के युवा प्रकृतिविज्ञानी मुकेश पंवार ने हाल ही में सत्यनारायण स्थित इस गेस्टहाऊस के आसपास मौजूद चिड़ियों की क़रीब ३५ प्रजातियों की पहचान की है|

अगर हमारा प्रयोग सफल रहा, तो आने वाले समय में हम समूचे उत्तराखंड में फैली वनविभाग की संपत्ति का उपयोग पर्यटन को बढ़ावा देने हेतु करेंगे| हमारा उद्देश्य है कि ऐसी तमाम संपत्तियों की देखरेख का ज़िम्मा स्थानीय युवाओं को सौंपकर उन्हें रोज़गार दिया जाए|

सत्यनारायण के इस गेस्टहाऊस में वातानुकूलित कमरे और कुल १२ बिस्तरों की व्यवस्था है| ये गेस्टहाऊस ऋषिकेश-हरिद्वार मार्ग पर नेपालीफ़ार्म के क़रीब, सत्यनारायण मंदिर से थोड़ा हटकर जंगल में बना हुआ है| ऋषिकेश से सड़कमार्ग द्वारा इस स्थान की दूरी १० किलोमीटर, हरिद्वार से १९ किलोमीटर और देहरादून से ४८ किलोमीटर है| निकटतम रेलवे स्टेशन रायवाला किलोमीटर और निकटतम हवाईअड्डा जॉलीग्रांट (देहरादून) यहां से क़रीब १९ किलोमीटर की दूरी पर है|

फिलहाल सत्यनारायण के इस गेस्टहाऊस की देखभाल का ज़िम्मा माउंटेन शेफर्ड्स से जुड़े उत्तरकाशी के दो युवकों हर्ष भट्ट और शोबन सिंह पंवार के कन्धों पर है| ये दोनों ही युवक उत्कृष्ट पर्वतारोही हैं और बाक़ायदा माउंटेनियरिंग कोर्स कर चुके हैं| इसके अलावा हर्ष भट्टमैथड ऑफ़ इंस्ट्रक्शनऔरमाउंटेन सर्च एंड रेस्क्यूजैसे विभिन्न कोर्स भी कर चुके हैं| सत्यनारायण के इस गेस्टहाऊस में ये दोनों साफ़-सफ़ाई से लेकर अतिथियों के लिए खाना बनाने जैसी तमाम जिम्मेदारियां बखूबी निभा रहे हैं|

हर्ष भट्ट और शोबन सिंह पंवार / फोटो : वत्सला शर्मा 
इस प्रयोग के सफल होने के बाद इस गेस्टहाऊस का प्रबंधन स्थानीय युवकों को सौंप दिया जाएगा| यही प्रक्रिया समूचे उत्तराखंड में फैली वनविभाग की विभिन्न संपत्तियों के साथ दोहराई जाएगी ताकि स्थानीय युवाओं को रोज़गार और पर्यटन विस्तार का अवसर तो मिले ही, साथ ही उनके भीतर वनों के प्रति अपनेपन का और वनों के संरक्षण का एहसास भी पैदा हो|

माउंटेन शेफर्ड्स की टीम जिस ईमानदारी, ऊर्जा और आत्मविश्वास के साथ अपने काम में जुटी हुई है, वो दिन दूर नहीं जब उत्तराखंड राज्य ईको-टूरिज्मके लिए विश्वस्तर पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब होगा
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परिचय : डॉ. सुनील कैंथोला -  

जन्म : अप्रैल १९६१ - देहरादून|

प्राथमिक शिक्षा : केंद्रीय विद्यालय, जाखू, शिमला|

माध्यमिक / उच्च माध्यमिक शिक्षा : केन्द्रीय विद्यालय नं., हाथीबड़कला, देहरादून / डी..वी.इंटर कॉलेज (देहरादून) से १२वीं|

डी..वी. डिग्री कॉलेज (देहरादून) से बी.एस.सी, एम.. (मनोविज्ञान), पी.एच.डी.|

फोटो : वत्सला शर्मा 
साल १९८९ में देहरादून स्थित एन.आई.वी.एच. (राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान) में रिसर्च असिस्टेंट के पद पर नियुक्ति और फिर सीनियर रिसर्च ऑफिसर के पद पर पदोन्नति...इच्छित काम कर पाने की कुंठा साल १९९५ में नौकरी से त्यागपत्र का कारण बनी|
 
साल १९८७ से साक्षरता आन्दोलन और उससे सम्बंधित नुक्कड़ नाटकों से जुड़ाव|

नौकरी से त्यागपत्र के बाद साल तक उत्तराखंड आन्दोलन में सक्रिय|

साल १९९६ में विकलांग-पुनर्वास के लिए एन.जी.. ‘जनाधारकी स्थापना|

(डॉसुनील कैंथोला / संपर्क : ८००६८ - ७२१९३ और ९७१९३ - १६७७७)
Dr. Sunil Kainthola / Contact : 80068-72193 & 97193-16777  
...................................................................प्रस्तुति : शिशिर कृष्ण शर्मा