Monday 26 December 2016

“लेखन की दुनिया के पारस" – धीरेन्द्र अस्थाना

लेखन की दुनिया के पारस" – धीरेन्द्र अस्थाना 
मुलाक़ात –  कहानीकार धीरेन्द्र अस्थाना के साथ
लेखन की दुनिया के पारस.......!!!
(धीरेन्द्र अस्थाना)

(षष्टिपूर्ति विशेष) 

किसी भी नयी और कच्ची लेखनी में छुपी सम्भावनाओं और सीमाओं को तुरंत ताड़ लेना उनकी पैनी निगाहों की विशेषता है तो उसे तराशना, सुदृढ़ आकार देना और नि:स्वार्थ-निष्काम भाव से उसका परिचय पाठकों से कराना उनका स्वभाव| हिन्दी के पाठक उन्हें एक उत्कृष्ट कहानीकार, उपन्यासकार और पत्रकार के तौर पर जानते और मानते हैं तो निकटमित्र-सम्बन्धियों की दृष्टि में वो एक सम्मानित और निश्छल-निष्कपट व्यक्ति हैं| लेखन की दुनिया में दमकते हुए आज की पीढ़ी के बहुत से नामों की चमक इसीपारसके स्पर्श का परिणाम है और इस सत्य से हिन्दी की प्रत्येक वरिष्ठ-कनिष्ठ लेखनी भली-भांति परिचित है| आज अर्थात 25 दिसंबर 2016 (रविवार) को उन्हीं धीरेन्द्र अस्थाना की षष्टिपूर्ति के अवसर पर प्रस्तुत है, ‘व्यंग्योपासनाके साथ निजी और लेखकीय जीवन पर पिछले दिनों विस्तार से हुई उनकी बेलाग बातचीत|

मेरा जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि

माता-पिता की पहली संतान के रूप में मेरा जन्म आज से ठीक 60 साल पहले, 25 दिसंबर 1956 को उत्तरप्रदेश के मेरठ शहर में हुआ था| मेरे पिता कस्टोडियन विभाग में काम करते थे। हमारा पैतृक शहर मुज़फ्फ़रनगर था और मेरे जन्म के कुछ ही समय बाद पिताजी कस्टोडियन की नौकरी छोड़कर वापस मुज़फ्फ़रनगर लौट आए थे| मेरे दादा मुज़फ्फ़रनगर में अंग्रेजों के ज़माने के एक रौबदाब वाले पुलिस इन्स्पेक्टर थे जिनसे पूरा शहर कांपता था| मुज़फ्फ़रनगर आने के कुछ ही समय बाद पिताजी को एम..एस. (मिलीटरी इंजीनियरिंग सर्विस) में नौकरी मिल गयी थी और मां और मुझे दादा-दादी के पास छोड़कर वो पहली पोस्टिंग पर आगरा चले गए थे|  

मेरी शिक्षा, मेरा बचपन -

मेरी शैशवावस्था का कुछ समय मुज़फ्फ़रनगर में दादा-दादी के साथ बीता और फिर मां और मैं पिताजी के पास आगरा चले आए| उसी दौरान मुझसे छोटे भाई का जन्म हुआ| पढ़ाई की उम्र हुई तो हम दोनों को आगरा के केन्द्रीय विद्यालय में दाखिला दिला दिया गया जहां से हमने 8वीं पास की| सरकारी नियमों के तहत पिताजी का ट्रांसफर नॉन-फैमिली स्टेशन जोशीमठ हुआ तो मां को हम बच्चों को साथ लेकर वापस मुज़फ्फ़रनगर जाना पड़ा| तब तक हम दो भाईयों से छोटे तीन अन्य भाईयों और एक बहन का भी जन्म हो चुका था| मैंने मुज़फ्फ़रनगर केमहामना मदनमोहन मालवीय इंटर कॉलेजसे 10वीं और 12वीं पास की| तब तक पिताजी बैरक एंड स्टोर्स सुपरवाईज़र की पदोन्नति पाकर ट्रांसफर पर देहरादून चले आए थे जहां उन्हें प्रेमनगर इलाक़े में सरकारी मकान मिल गया था| मेरे 12वीं करने के बाद मां भी हम बहन-भाईयों को साथ लेकर देहरादून चली आयी थीं|                 

लेखन, नौकरी और पढ़ाई

लिखने का शौक़ मुझे मुज़फ्फ़रनगर में रहते ही लग चुका था| मैं और मेरा दोस्त राजकुमार गौतम कहानियां लिखते थे, बड़ा लेखक बनने के सपने देखते थे और स्थानीय अखबारदैनिक देहातमें छपने भी लगे थे| मेरी एक कहानीपंजाब केसरीमें भी छपी थी, हालांकि उस दौर के अपने तमाम लेखन को मैं खारिज कर चुका हूं| देहरादून आया तो पिताजी ने कहा, 12वीं कर चुके हो, अब एक-दो साल आराम करो| पढ़ाई से छुट्टी मिली तो जेबखर्च निकालने के लिए मैंने स्थानीय अखबार1970’ में उपसम्पादक की नौकरी पकड़ ली| गाने का भी मुझे बेहद शौक़ था, आवाज़ भी अच्छी थी, सो प्रेमनगर की रामलीला में इंटरवल के दौरान मुझसे गाने गवाए जाते थे| बदले में 20 रूपए मिलते थे जो उस ज़माने के हिसाब से अच्छीखासी रकम थी|

अखबार1970’ की नौकरी मैंने कुछ ही महीने की और उस दौरान उसमें कई लेख भी लिखे| फिर मैं देहरादून के ही प्रतिष्ठित अखबारवैनगार्डमें गया जिसे देहरादून के साहित्यकारों का अड्डा माना जाता था| वैनगार्ड के सम्पादक सुखबीर विश्वकर्मा उर्फ़ कविजी के माध्यम से मेरा संपर्क अवधेश कुमार, देशबंधु, गुरदीप खुराना, कृष्णा खुराना, नवीन लोहानी और शशिप्रभा शास्त्री जैसे जानेमाने लेखक-लेखिकाओं और मशहूर फोटोग्राफर ब्रह्मदेव से हुआ और जल्द ही हमसब गहरे दोस्त बन गए| साल 1974 में मेरी पहली साहित्यिक कहानीलोग हाशिए परत्रैमासिक पत्रिकासिलसिलामें छपी जिसके सम्पादक आज के मशहूर कहानीकार सुभाष पन्त थे| इस कहानी के माध्यम से मेरा संपर्क देश के बड़े लेखकों से हुआ|

साल 1974 में ही मैंने देहरादून के डी..वी.डिग्री कॉलेज में हिन्दी, इतिहास और समाजशास्त्र विषयों के साथ बी.. में दाखिला भी ले लिया| मेरा लेखन, नौकरी और पढ़ाई साथ-साथ चल रहे थे| देहरादून शहर से प्रेमनगर करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर था इसलिए मैंने पिताजी का घर छोड़ा और डी..वी.कॉलेज के बगल वाली गली में किराए पर कमरा लेकर रहने लगा|

आपातकाल की गाज

जून 1975 के पहले हफ्ते में वैनगार्ड ने एक पुस्तिका के रूप में मेरा पहला लघु उपन्यासअनसुलझे समीकरणप्रकाशित किया जिसकी मूल अवधारणा सरकार विरोधी थी| लेकिन इस उपन्यास के आम पाठकों तक पहुंचने से पहले ही देश में आपातकाल लग गया| हमें सूचना मिली कि उपन्यास के कारण हमारी भी गिरफ़्तारी हो सकती है तो वैनगार्ड ने आननफानन में उसकी तमाम प्रतियां जला दीं और मुझे देहरादून छोड़ना पड़ा| मैं भागकर कोलकाता पहुंचा, डॉ.शम्भुनाथ और लेखिका मीरा जी से मिला, कॉमरेडों के घरों में पनाह ली| दो महीनों बाद छुपता-छुपाता कोटा आया जहां कवि आत्माराम और कवि शिवराम ने अपने घरों में रहने की जगह दी| मैंने कोटा में क़रीब तीन महिने गुजारे और फिर वापस देहरादून लौट आया|

लेखन, राजनीति और प्रेमविवाह

बी.. का पहला साल मैं 1974 – 75 के सत्र में पास कर चुका था| अगला एक साल सरकार की टेढ़ी नज़रों से बचने की जद्दोज़हद में बरबाद हो गया| देहरादून लौटकर 1976 – 77 के सत्र में मैंने बी.. के दूसरे साल में दाखिला ले लिया| मेरा झुकाव वामपंथ की ओर था इसलिए हम कुछ साथियों ने मिलकर कॉलेज में एस.एफ़.आई. की स्थापना की जिसका संस्थापक अध्यक्ष मुझे बना दिया गया| इस तरह मैं पढ़ाई के साथ साथ कॉलेज की राजनीति में भी सक्रिय हो गया| उधर लेखन भी चल ही रहा था| साल 1978 में तीसरे सत्र के साथ ही मैंने बी..पास कर लिया था|

जनवरी 1976 में देश की अग्रणी साहित्यिक पत्रिकाओं में से एक, ‘सारिकामें मेरी कहानीसिर्फ़ धुंआछपी थी| मई 1977 के अंक में सारिका ने मेरी दूसरी कहानीआयामछापी, जिसे पढ़कर हलद्वानी की एक पाठिका ललिता बिष्ट ने मुझे पत्र लिखा| फिर वो एक के बाद एक मुझे पत्र लिखती रहीं और धीरे धीरे वो पत्र लम्बे होते चले गए| और फिर एक रोज़ एक पत्र में उन्होंने लिखा कि मैं फलां तारीख को तुमसे शादी करने रही हूं| उन दिनों मैं पिताजी के प्रेमनगर स्थित घर में रह रहा था| पिताजी को पता चला तो उन्होंने साफ़ कह दिया कि अगर शादी करोगे तो इस घर में लौटकर मत आना| मां ज़रूर खुश थीं लेकिन मजबूर थीं|

13 जून 1978 की सुबह तड़के ही ललिता पिताजी के घर पर धमकीं| उन्होंने मुझे नींद से जगाया और बोलीं कि इससे पहले कि उनके  पिता वारंट लेकर आएं, हमें तुरंत शादी करनी है| मैं ललिता को साथ लेकर अपनी वकील दोस्त कॉमरेड रजनी ममगाईं के पास पहुंचा| वहां से मेरा एक दोस्त पवन मुझे और ललिता को अपनी मोटरसाईकिल पर बैठाकर एक मंदिर में ले गया| हमारे पीछे पीछे रजनी ममगाईं और मेरा सबसे क़रीबी दोस्त देशबंधु भी पहुंच गए और उन सबकी गवाही के बीच मैंने ललिता से शादी कर ली|

अगले दिन देहरादून शहर के सभी प्रमुख अखबारों के मुखपृष्ठ पर खबर छपी थी, ‘एस.एफ़.आई. के अध्यक्ष की शादी|     

नयी ज़िंदगी की शुरूआत

ललिता जी के साथ 
पिताजी के घर के दरवाज़े मेरे लिए बंद हो चुके थे इसलिए शादी की पहली रात हमने चकरौता रोड पर दिग्विजय टॉकीज़ के पीछे की गली में देशबंधु के किराए के कमरे में बिताई| देशबंधु हमें अपने कमरे की चाभी देकर उस रात अपने पिता के घर चला गया था| अगली सुबह हम पति-पत्नी देहरादून के मशहूर लेखक भीमसेन त्यागी जी के राजपुर रोड स्थित बंगलेनुमा घर पर रहने चले गए| उसी दोपहर भीमसेन त्यागी जी को अपने क़रीबी दोस्त, लेखक सुदर्शन के निधन की खबर मिली तो बंगले की चाभी हमें सौंपकर वो सपरिवार दिल्ली चले गए| 15 दिनों बाद लौटे तो मेरे लिए हिन्दी के सबसे बड़े प्रकाशन संस्थानराजकमलमें नौकरी का प्रस्ताव लेते आए| मैं ललिता को मां के पास छोड़कर तुरंत दिल्ली रवाना हो गया| यहां से जीवन में नौकरी शुरू हुई और राजनीति विदा हो गयी| नौकरी के साथ हीराजकमलने मुझे अपने गेस्ट हाऊस में अस्थायी रूप से रहने की जगह भी दे दी| पहली तनख्वाह मिली तो मैं ललिता को भी देहरादून से दिल्ली ले आया और इस तरह हम दिल्लीवासी हो गए| फिर जल्द ही कहानीकार सुरेश उनियाल ने हमें नेताजीनगर में किराए का मकान दिला दिया जहां 13 मार्च 1979 को मेरे बड़े बेटे आशु (ऋत्विक) का जन्म हुआ| कुछ समय बाद हम सरोजिनीनगर में रहने लगे जहां 4 अगस्त 1984 को छोटे बेटे राहुल का जन्म हुआ| तब तक मैं तीसरी नौकरी पकड़ चुका थाउधर मेरे दिल्ली आने के कुछ ही दिनों बाद पिताजी ट्रांसफर पर मय परिवार जोधपुर चले गए थे|     

ससुराल से सम्बन्धों का जुड़ना

ललिता के पिता मूलत: हलद्वानी के रहने वाले थे और आज़ाद हिन्द फ़ौज के सेवानिवृत्त सिपाही थे| वो सपरिवार मुम्बई में रहते थे और मुम्बई के अंधेरी उपनगर स्थित एक बिल्डर की प्रॉपर्टी की देखभाल करते थे| हमारी तमाम आशंकाओं के विपरीत उन्होंने हमारे इस प्रेमविवाह के विरूद्ध कदम उठाना तो दूर हमसे कोई सम्पर्क तक नहीं किया| शायद उन्होंने अपनी बेटी और दामाद से किसी भी तरह का सम्बन्ध रखने की कसम खा ली थी| लेकिन हमारे बड़े बेटे आशु (ऋत्विक) के जन्म के बाद वो नरम पड़ गए थे |

नौकरी से बर्खास्तगी और एक दिन की बेरोज़गारी

राजकमल प्रकाशनकी मेरी नौकरी की उम्र महज़ 3 बरस की रही| दरअसल उस नौकरी के अनुभवों को आधार बनाकर मैंने एक लम्बी कहानी या लघु-उपन्यास जो भी कहें, ‘आदमीखोरलिखा जिसेरविवारपत्रिका ने चार अंकीय धारावाहिक के रूप में छापा| उसे पढ़कर राजकमल की मालकिन शीला संधू ने मुझे अपने कमरे में बुलाया, अंग्रेज़ी में कहा – ‘गेट लॉस्ट’ और कुछ ही देर में एकाऊंट विभाग ने मेरा हिसाब-किताब कर दिया| शीला संधू के आदेश  मैं उनके संस्थान सेदफ़ाहो चुका था| वो दिन था 31 मार्च 1981, मंगलवार| लेकिन मेरी उस बेरोज़गारी की उम्र बहुत ज़्यादा नहीं थी|

दिल्ली का ही राधाकृष्ण प्रकाशन उन दिनों मेरे पहले उपन्याससमय एक शब्द भर नहीं हैके प्रकाशन की तैयारी में जुटा हुआ था| नौकरी से बर्खास्तगी से अगले ही दिन यानि 1 अप्रैल 1981 को मैं अपने उपन्यास की प्रगति का जायज़ा लेने राधाकृष्ण प्रकाशन के कार्यालय में पहुंचा| बातचीत के दौरान राधाकृष्ण के मालिक अरविंद कुमार जी को जब पता चला कि मैं राजकमल छोड़ चुका हूं तो उन्होंने अगले ही दिन से मुझे अपने यहां बुला लिया| लेकिन राधाकृष्ण की नौकरी में भी मैं सालभर ही रह पाया| मई 1982 में मुझे टाईम्स ऑफ़ इंडिया की प्रतिष्ठित पत्रिका दिनमान में उपसम्पादक की नौकरी मिली तो मैं 10 दरियागंज की बौद्धिक गली का सदस्य हो गया| पत्रकारिता और साहित्य के बड़े बड़े दिग्गज इस गली से बावस्ता रहे हैं जिनमें प्रमुख हैं - अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, कन्हैयालाल नंदन, मृणाल पांडे, प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज, सुरेश उनियाल, अवधनारायण मुद्गल, रमेश बत्रा, बलराम, नेत्रसिंह रावत, महेश दर्पण, वीरेन्द्र जैन, उदय प्रकाश, और संतोष तिवारी|     

चौथी दुनिया -

मई 1982 से सितम्बर 1986 तक क़रीब सवा चार साल मैंने दिनमान में काम किया| उन्हीं दिनों दिल्ली से पहले साप्ताहिक अखबारचौथी दुनियाके निकलने की क्रांतिकारी घोषणाएं शुरू हुईं, जिसके साथ पत्रकारिता के उस दौर के दिग्गज जुड़े हुए थे| कमल मोरारका के स्वामित्व वाले उस अख़बार के सम्पादन की ज़िम्मेदारी संतोष भारतीय के कन्धों पर थी और अन्य दिग्गजों में क़मर वहीद नक़वी और रामकृपाल जैसे जानेमाने नामों का शुमार था| ‘चौथी दुनियासे मुझे मुख्य-उपसम्पादक की नौकरी का प्रस्ताव मिला तो उस स्वर्णिम प्रस्ताव को लपकने में मैंने देर नहीं की| लेकिन अफ़सोस कि वो क्रांतिकारी साप्ताहिक अपने आख़िरी दिनों में कुछ गलत नीतियों और एक राजनैतिक दलविशेष की पक्षधरता के चलते अपने तेवर खो बैठा और एक लम्बी और पत्रकारिता के गलियारों में चर्चित हड़ताल के बाद अक्टूबर 1989 में बंद हो गया, हालांकि मैं उस अखबार के बंद होने से पहले ही इस्तीफा दे चुका था| तंगदिल दिल्ली की तपती हुई सड़कों पर मैं पूरे 9 माह बेरोज़गार और बदहवास भटकता रहा| लेकिन हर रात की वाकई एक सुबह होती है| जल्द ही किस्मत ने पलटा खाया और मेरे सामने एक बिल्कुल ही नया और बेहतरीन रास्ता खुल गया| जनसत्ता के प्रधान सम्पादक प्रभाष जोशी ने मुझे मुम्बई जनसत्ता का फीचर सम्पादक बनाकर तब की बंबई में भेज दिया था
...........और इस तरह मैं इस मायानगरी का हिस्सा बन गया|

यश की दास्तान

दिल्ली से 15 जून 1990 की पश्चिम एक्सप्रेस से चलकर मैं 16 जून की दोपहर मुम्बई पहुंचा, बोरीवली में उतरकर ऑटो लिया और अंधेरी पूर्व स्थित अपनी ससुराल चला गया| 17 जून को मैंने मुम्बई जनसत्ता के ऑफिस में हाजिरी लगाई और उसी रोज़ से जनसत्ता के चार पन्नों के रविवारीय परिशिष्ट सबरंग का काम संभाल लियाअक्तूबर 1990 में सबरंग को एक रविवारीय पत्रिका का रूप दे दिया गया जिसने बहुत जल्द लोकप्रिय पत्रकारिता की दुनिया में सफलता के झंडे गाड़ दिए| सबरंग ने 100 से ज़्यादा नए लेखकों और पत्रकारों को जन्म दिया तो वहीं देश के कई जानेमाने रचनाकार भी इससे जुड़े|

(विशेष : सबरंग से जन्मे उपरोक्त 100 से ज़्यादा नए लेखकों में ये साक्षात्कारकर्ता भी शामिल है जिसे धीरेन्द्र जी ने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया, लेखन की बारीकियों से परिचित कराया और आगे चलकर लेखन के कई बेहतरीन अवसर भी दिए|)

जनसत्ता का अवसान  -

साल 2000 दुर्भाग्य की तरह आया और जनसत्ता बंद होने की कगार पर खड़ा हुआ| 20 अप्रैल 2000 को जब जनसत्ता के 10 वर्ष पूरे होने में महज़ 2 महिने बाक़ी थे, हम कई साथियों ने सामूहिक रूप से जनसत्ता से त्यागपत्र दे दिया| मैं एक बार फिर से बेरोज़गार हो चुका था| इस बार शहर था मुम्बई जहां वैभव कोहरे की तरह बरसता है पर मेरे बैंक खाते में कुल 700 रूपए ही बचे थेलेकिन दो ही दिन बाद जनसत्ता के स्थानीय सम्पादक प्रदीप सिंह जी ने कहा कि मैं आधी तनख्वाह पर इन्डियन ऑयल नगर अंधेरी (पश्चिम) स्थित धर्मयुग.कॉम के ऑफिस में काम शुरू कर दूं| वो तनख्वाह थी 7 हज़ार जो उतनी बुरी भी नहीं थी| उसके दम पर मुम्बई में कम से कम पांव तो टिके रह ही सकते थे| लेकिन शुरू होने से पहले ही महज़ 6 महीनों में ये .पत्रिका बंद हो गयी और इस तरह अक्तूबर 2000 में मैं एक बार फिर से बेरोज़गार हो गया|   

दिल्ली वापसी

मेरी नौकरी के लिए प्रदीप सिंह जी की कोशिशें बदस्तूर जारी थीं| फरवरी 2001 में पत्रकार से राजनेता बन चुके राजीव शुक्ला से कहकर प्रदीप जी ने मुझे दैनिक जागरण में सहयोगी सम्पादक की नौकरी दिलवा दी और इस तरह मैं एक बार फिर से उसी दिल्ली की गलियों में भटकने के लिए चल पड़ा जिसे 11 साल पहले अलविदा कह आया था, हालांकि इस बार कार्यस्थल और निवास दोनों ही दिल्ली से सटे नौएडा में थे| ललिता और छोटा बेटा राहुल मेरे साथ थे| नौएडा आकर मैंने जागरण की पत्रिकाउदयका कामकाज सम्भाला| सालभर बाद जबउदयबंद हुई तो जागरण के मालिक संजय गुप्ता ने मुझे अपनी हाईफाई पत्रिकासखीमें भेज दिया और इस तरह ज़िंदगी में पहली बार मुझे एक महिला-पत्रिका के अनुभव बटोरने का अवसर मिला|

फिर से मुम्बई की ओर – 

उसी दौरान हिन्दी दैनिकराष्ट्रीय सहाराने 48 पन्नों का राष्ट्रीय समाचार साप्ताहिकसहारा समयनिकालने की घोषणा की जिसके लिए बड़े पैमाने पर नियुक्तियां हुईं| इसके सलाहकार सम्पादक हिन्दी के प्रकांड आलोचक डॉ.नामवर सिंह और समूह सम्पादक गोविन्द दीक्षित थे, जिन्होंने इस अखबार को प्रतिभाओं से पाट दिया| मंगलेश डबराल, मनोहर नायक, चंद्रभूषण, अरिहंत जैन आदि के साथ मुझे भी नौकरी का प्रस्ताव मिला और इस तरह 1 अप्रैल 2003 को मैंनेसाप्ताहिक सहारा समयमें सहयोगी सम्पादक का पद सम्भाला और फिर उसी पद के साथ 4 मई 2003 को मुम्बई वापस लौट आया जहां मेरा अपना मकान था और उस मकान में आशु अकेला रह रहा था| 10 मई 2003 से बहुत जोरशोर और नए तेवरों के साथसहारा समयका प्रकाशन शुरू हुआ और जल्द ही उसने पूरे देश में अपनी पकड़ बना ली| ‘सहारा समयसाल 2006 में बंद हुआ लेकिन मैं अभी भी उसी संस्थान में हूं और पिछले 10 सालों से दैनिक राष्ट्रीय सहारा के लिए फिल्म समीक्षा लिखने का काम कर रहा हूं|

उपन्यास, कहानी संग्रह और साक्षात्कार

अभी तक मेरे 4 उपन्यास, 8 कहानीसंग्रह और 2 साक्षात्कार-संग्रह छप चुके हैं| ताज़ा सूचना ये है कि मैंने जो भी और जैसा भी जीवन जिया, उसे दर्ज करने वाली मेरी आत्मकथापूछती है सैयदा इस ज़िन्दगी का क्या कियाजल्द ही छपने जा रही है| मेरे काम पर देश के आधा दर्जन विश्वविद्यालयों में एम.फिल. हो चुका है और 3 विश्वविद्यालयों में पी.एच.डी. हो रही है|

वर्त्तमान  –

मैं मुम्बई के पश्चिमी उपनगर मीरारोड में रहता हूं, पत्नी ललिता और दोनों बेटे आशु (ऋत्विक) और राहुल अपने अपने क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे हैं और खुश हैं| 13 जून 1978 को जिस ललिता बिष्ट ने ललिता अस्थाना बनकर मुझे सम्भाला था वो आज भी मेरा संबल बनी हुई हैं| घरगृहस्थी को संभालने के साथ साथ वो पूरी ऊर्जा के साथ शिक्षण के अपने प्रिय कार्य में भी व्यस्त हैं|
............इस 25 दिसंबर को मैं जीवन के छः दशक पूरे करने जा रहा हूं|   

(संपर्क : धीरेन्द्र अस्थाना, डी/2/102, देवतारा अपार्टमेंट्स, मीरासागर काम्प्लेक्स, रामदेव पार्क रोड, मीरा रोड (पूर्व), ठाणे  – 401105  
मोबाईल : 098218 72693) 
...............................................................प्रस्तुति : शिशिर कृष्ण शर्मा