"माशाअल्लाह!"
..........शिशिर कृष्ण शर्मा
जहांगीर अहमद साहब का मैसेज मिलते ही बांछें कली से फूल हुईं, और मुस्कान ढाई से पौने तीन इंची...मन मयूर ने पंख फैलाकर ठुमके लगाए और हृदय का हरिण कुलांचे भरने लगा| अहो! डॉ. फारूख ने मिलने का समय दे ही दिया था...सवा पांच बजे का|
डॉ. फ़ारूख |
डॉ. फारूख, यानि भारत की मशहूर हिमालय ड्रग एंड फार्मास्यूटिकल कम्पनी के प्रेसिडेंट...और जहांगीर अहमद, यानि डॉ. फ़ारूख़ के पी.ए.|
हिमालयवाला |
दरअसल साल 2017-18 में टाटा स्काई पर प्रसारित हुए शेमारू विडियो के कार्यक्रमों, 'क्लासिक किस्से' और 'सिनेमा का सफ़र' के शोध और लेखन के दौरान एक अजीबोग़रीब से नाम ने मुझे उलझाकर रख दिया था|
'हिमालयवाला'? ये कैसा नाम हुआ? कौन थे ये अभिनेता?’...मन में उमड़े इस सवाल को लेकर छानबीन शुरू की तो पता चला वो मेरे ही शहर देहरादून के रहने वाले थे, और हिमालय ड्रग एंड फार्मास्यूटिकल कम्पनी के मालिकों के ख़ानदान से थे| और इसीलिये मैं डॉ. फारूख से मिलना चाहता था, ताकि 'हिमालयवाला' के बारे में अभी तक मिली जानकारियों की पुष्टि करने के साथ साथ कुछ और नयी जानकारियां भी हासिल कर सकूं| इस सन्दर्भ में मैं जहांगीर अहमद साहब को अपने पूरे परिचय के साथ ब्लॉग और यूट्यूब चैनल 'बीते हुए दिन' के दो-तीन लिंक भी भेज चुका था, ताकि डॉ. फारूख विषय से परिचित हो सकें|
10 किलोमीटर का वो फ़ासला 'अस्थायी' के तमगे वाली इस स्थायी राजधानी की, ट्रैफ़िक से लबरेज़ सड़कों पर से दौड़ता-भागता, गिरता-पड़ता, रूकता-हांफता महज़ आध घंटे में तय करता हुआ मैं, समय से 10 मिनट पहले ही मंज़िल पर पहुंचने में कामयाब हो गया| जहांगीर अहमद साहब ने मेरा स्वागत किया, बेहद इज़्ज़त के साथ मुझे उस विशाल भवन के भीतर ले गए, और कांफ्रेंस रूम में बैठा आए|
कुछ क्षणों बाद अन्दर के दरवाज़े से डॉ. फ़ारूख कांफ्रेंस रूम में दाख़िल हुए| अत्यंत भव्य, प्रभावशाली व्यक्तित्व!...मैंने खड़े होकर उनका अभिवादन किया|
'बैठिये…!’ - डॉ. फारूख ने कहा|
'शुक्रिया...!’ कहकर मैं कुर्सी पर बैठ गया|
‘माशाअल्लाह! बहुत अच्छे इंसान हैं आप!...लीजिये|’ - डॉ. फारूख ने सामने टेबल पर रखी ड्रायफ्रूट्स से भरी ट्रे की ओर इशारा किया|
‘शुक्रिया…!’ - मैंने काजू का एक टुकड़ा उठाया...उनके मान और अपने सम्मान के लिए बस इतना ही पर्याप्त था|
'जी कहें!’
मैंने अपना परिचय दिया...वो ख़ामोशी से सुनते रहे...फिर मैंने उन्हें अपना आने का मक़सद बताया...
‘बहुत अच्छे इंसान हैं आप| दरअसल इस कंपनी की बुनियाद साल 1930 में मिस्टर एम.मनाल ने रखी थी| दो साल बाद उनके बड़े भाई मिस्टर एम.मिसाल ने उन्हें ज्वाइन किया था|
'सर उनके एक भाई और थे, जो एक्टर थे...पार्टीशन के बाद पाकिस्तान चले गए थे| दरअसल मुझे उनके बारे में जानना था...’ - मैंने कहा|
'उनके बारे में मैं कुछ नहीं बता पाऊंगा…'
‘सर, कोई हैं जो बता पाएं? एक्चुअली ऑथेंटीसिटी के लिए आर्टिस्ट या उनके फैमिली मेम्बर्स या किसी क़रीबी से बात करना बेहद ज़रूरी है|’
‘बहुत अच्छे इंसान हैं आप| मिस्टर मनाल के ग्रैंडसन से बात कर लें|’
‘वो देहरादून में ही हैं?’
‘बंगलौर में...चेयरमैन हैं वो कंपनी के|’
(कुछ लम्हों की ख़ामोशी…उस दौरान मन में कई कई विचारों ने उठक-बैठक की...)
‘एक गुज़ारिश है सर|’
‘बहुत अच्छे इंसान हैं आप| कहें?’
‘अगर आपके ऑफिस में मिस्टर मिसाल और मिस्टर मनाल की तस्वीरें हों तो मैं उनमें से क्लिक कर सकता हूं?’
(दरअसल छानबीन के दौरान मुझे पता चला था कि डॉ.फारूख के ऑफिस की दीवार पर उक्त दोनों की बड़े आकार की तस्वीरें टंगी हुई हैं...)
'उन एक्टर की तस्वीर तो हमारे पास नहीं है|'
'सर मैं मिस्टर मिसाल और मिस्टर मनाल के बारे में कह रहा हूं...उनकी तस्वीरें तो शायद हैं आपके पास?
'आपको नेट पर सारी तस्वीरें मिल जाएंगी|' - मृदुभाषी और मितभाषी डॉ.फारूख ने विनम्रता से कहा|
‘सर वो बहुत छोटे साइज़ की हैं| ब्लोअप करने पर साफ़ नज़र नहीं आएंगी|’
(उसी दौरान एक बुज़ुर्ग मुल्ला जी अन्दर आए और टेबल पर एक गिफ्ट हैंपर रखकर चले गए| 'हिमालय' का नाम छपे हैंपर में से मुझे हिमालय प्रोडक्ट्स की तीन-चार बड़ी बड़ी ट्यूब्स बाहर झांकती नज़र आयीं, अन्दर शायद और भी कुछ चीज़ें थीं जो अपने छोटे क़द की वजह से मन मसोसकर बैठी थीं|)
'लीजिये, आपके लिए...बहुत अच्छे इंसान हैं आप!' - डॉ.फारूख ने गिफ्ट हैंपर मेरे हाथ में थमा दिया|
‘सर अगर तस्वीरें क्लिक करने की इजाज़त दें तो...’ - मैंने अपने थोबड़े को अधिकाधिक दयनीय बनाने का भरसक प्रयत्न किया...
'नेट पर तमाम तस्वीरें मौजूद हैं... बहुत अच्छे इंसान हैं आप ...माशाअल्लाह!’ - डॉ.फारूख ने कहा, और जिस दरवाज़े से कांफ्रेंस रूम में दाख़िल हुए थे, उसी से वापस लौट गए|
मैं कुछ पल हतप्रभ सा खड़ा रहा...हैम्पर हाथ में थामे...और फिर स्वयं को संयत करता हुआ कांफ्रेंस रूम से बाहर निकल आया| ठीक सामने क्यूबिकल में बैठे जहांगीर अहमद मुझे देखकर स्वागत का भाव लिए मुस्कुराए| मैं उनकी ओर बढ़ा| एकाएक उनके इन्टरकॉम (या शायद मोबाइल) की घंटी बजी| वो झटके से उठे और मुझे 'फोन पर बात करते हैं' का इशारा करते हुए हड़बड़ाए हुए से, कांफ्रेंस रूम के ठीक बगल वाले बड़े से दरवाज़े से भीतर चले गए| हैम्पर मेरे हाथ में ही टंगा रह गया|
एकाएक मेरी नज़र कुछ ही दूरी पर खड़े उन्हीं बुज़ुर्ग मुल्लाजी पर पड़ी| मैंने हैंपर उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘ये रख लीजिये साहब|’
‘नहीं नहीं साहब, ये आपका है, ये मैं नहीं ले सकता|’ - मुल्लाजी को बिजली का सा झटका लगा| उन्होंने अपने दोनों हाथ अपनी पीठ के पीछे खींच लिए थे| मुझे उनके चेहरे पर हवाईयां सी उड़ती प्रतीत हुईं|
आज बीस दिन बाद भी कान उनके फ़ोन की घंटी सुनने को आतुर हैं...और काजू का वो टुकड़ा आज भी हलक में फंसा हुआ सा प्रतीत होता है|
(विशेष टिप्पणी : आलेख के साथ प्रयुक्त सभी तस्वीरें इन्टरनेट से ली गयी हैं|)
अभिनेता हिमालयवाला यूट्यूब चैनल 'बीते हुए दिन' पर