"बंद दरवाज़े का सूना महल"
…..कहानी : शिशिर कृष्ण शर्मा
(‘पाखी’ / जून 2011 में प्रकाशित
!!!)
'सूना महल और झरोखा'
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हमीर महल के, दो हाथियों की सी ऊंचाई लिए लकड़ी के मज़बूत बंद दरवाज़े पर लिखा था – ‘प्रवेश वर्जित’ !
***
पिछले बारह बरसों में न जाने कितनी बार इस इलाक़े से होकर ग़ुज़रा हूं। ट्रेन के सवाई माधोपुर स्टेशन पर रुकते ही हर बार ज़हन में वो नाम गूंजने लगता था, जिसका ज़िक्र मैं बचपन से सुनता आया था। और नाम ही क्यों, उस नाम से जुड़ा धुंधलाया सा चेहरा भी तो आंखों के सामने कौंधता था…भुवन चन्द्र जोशी का !...मेरे चाचा के दोस्त…उनके सहपाठी…देहरादून में सर्वे ऑफ इण्डिया की सरकारी कॉलोनी के हमारे पड़ोसी। नौ-दस बरस का रहा होऊंगा मैं जब वो देहरादून छोड़कर चले गए थे। कहां गए और किस हाल में होंगे, लम्बे समय तक ये बात कोई नहीं जान पाया। बस !...पीछे छोड़ गए थे, तो क़िस्से-कहानियां और मध्यमवर्गीय सरकारी कॉलोनियों के चरित्र के अनुरूप नित नयी अफ़वाहों का सिलसिला, जिनमें हंसी-ठट्ठे और चटखारों से लेकर कोरी भावुकता और आंसुओं जैसे सभी रंग समाए होते थे। और फिर महिनों बाद पता चला था कि उनके हाल पर तरस खाकर किसी जानने वाले ने कह-सुनकर उन्हें पुरातत्व विभाग में नौकरी दिला दी थी। और अब वो रणथम्भौर के क़िले में थे…बतौर चौकीदार…या थोड़ा सम्मानपूर्वक कहें तो बतौर केयरटेकर।
कहते हैं कि मां दूसरी तो बाप तीसरा। कुछ ऐसा ही हुआ था भुवन चन्द्र जोशी के साथ। ढाई-तीन बरस के हुए कि मां ग़ुज़र गयीं। नयी मां घर में आयीं। लेकिन दूसरी मां तो दूसरी ही होती है। और अगर वो ‘अपनी’ बनना भी चाहे तो समाज की शक़्क़ी निगाहें, बच्चे के प्रति नाते-रिश्तेदारों का अतिरिक्त चौकन्नापन और माथे पर चस्पां ‘सौतेली मां’ का कलंक उसे बच्चे की ‘अपनी’ बनने ही नहीं देता। शायद ये भी एक वजह रही होगी कि ग़ुज़रते वक़्त के साथ नयी मां जैसे जैसे मां बनती गयीं, भुवन चन्द्र उस घर में ग़ैरज़रूरी होते चले गए। कहते हैं कि दो वक़्त का खाना भी सम्मानपूर्वक हासिल कर पाना मुश्क़िल हो चला था उनके लिए। दिसम्बर के महिने तक की कई-कई रातें उन्हें महज़ एक जोड़ी कपड़ों में घर से बाहर, बरामदे के एक कोने में सिकुड़े और ठिठुरते हुए गुज़ारनी पड़ती थीं। ऐसे तमाम विकट हालात में रुकते-ठहरते बीस-इक्कीस साल की उम्र में किसी तरह उन्होंने आठवीं पास की और फिर अपने अस्तित्व को महज़ क़िस्से-कहानियों और अफ़वाहों में सिमटा छोड़ हमेशा के लिए दूर चले गए...घर-परिवार, नाते-रिश्तेदार, दोस्त-पड़ोसियों और अपनी माटी से दूर।
***
क़िले के प्रवेशद्वार पर बनी पुरातत्व विभाग की चौकी में मेज़ पर पैर फैलाए, ऊंघते, कुर्सी पर अधलेटे से व्यक्ति ने पूछने पर अलसाई सी आवाज़ में बताया कि जोशी जी हमीर महल में मिलेंगे।
‘हमीर महल ?...वो कहां है’ ? मैंने प्रश्न किया।
‘अजी साहब, ऊपर तो जाईये, पूछ लेना वहां किसी से’। रूखा सा उत्तर देकर वो फिर से उसी चिरंतन मुद्रा में ऊंघने लगा।
उसकी बदतमीज़ी पर ग़ुस्सा तो बहुत आया कि टेंटुआ दबाकर पहले इसे ही जो पूरी तरह से ऊपर पहुंचा दूं। भर दुपहरी साढ़े ग्यारह बजे कोई टाईम है सोने का? फिर सोचा, किस-किस का टेंटुआ दबाऊंगा?...और वो भी सरकारी नौकर, जिनसे रोज़-ब-रोज़ का पाला पड़ना तो आम आदमी की नियति में लिखा है, नगरपालिका में, राशनिंग, आर.टी.ओ., पासपोर्ट
ऑफिसों में, कोर्ट-कचहरी में और और भी तमाम सरकारी दफ्तरों में। ख़ून का घूंट पीकर ऊपर जाने के लिए मुड़ा ही था कि अचानक उन साहब को बोधज्ञान की प्राप्ति सी हुई।
‘लगता है आप कहीं बाहर से आए हैं’? क्यों और कैसे, ये तो मुझे नहीं पता, लेकिन उनकी वाणी में एकाएक ग़ज़ब की नरमी आ गयी थी। मेज़ पर टंगी उनकी टांगें ज़मीन पर उतर चुकी थीं, कमर अब सीधी थी और आंखें पूरी तरह खुलकर ऊदबिलाव की सी हो गयी थीं।
‘जी हां’...रूखेपन से संक्षिप्त सा उत्तर देकर मैंने कुछ क्षण पूर्व हुए अपने अपमान का बदला लेने की कोशिश की।
‘कैसे जानते हैं जोशी जी को’ ?...उन्होंने अगला प्रश्न दागा।
‘आपको मतलब’ ?...मैंने कहना चाहा लेकिन कह नहीं पाया।
वो शायद मेरी मन:स्थिति को भांप चुके थे इसलिए सफ़ाई पेश करते हुए से बोले, ‘पन्द्रह साल हो गए जी मुझे यहां नौकरी करते हुए। मेरी याद में पहली बार कोई यहां जोशी जी से मिलने आया है, इसीलिए पूछा था। वरना तो बस जोशी जी और जोशी जी का हमीर महल’ ! कहकर उन्होंने खिसियानी सी हंसी हंसते हुए माहौल को हल्का करने की कोशिश की... ऐसे में एक हल्की सी मुस्कान स्वयंमेव मेरे चेहरे पर भी तिर गयी।...और फिर शुरु हुआ बातों का सिलसिला, जिसके केन्द्र में थे, भुवन चन्द्र जोशी। उन साहब के मुताबिक़ क़िले के ऊपरी हिस्से में बने हमीर महल के केयर-टेकर भुवन चन्द्र जोशी का बाहरी दुनिया से सम्पर्क न के बराबर था। उनकी निजी ज़िन्दगी, उनके घर-परिवार, उनके नाते-रिश्तेदारों के बारे में विभाग के उनके सहकर्मियों तक को ज़्यादा कुछ पता नहीं था। हफ़्ता-दस दिन में एक बार पीने का पानी लेने और तेल-साबुन-राशन जैसी ज़रूरी चीज़ें ख़रीदने के लिए वो पहाड़ी से नीचे उतरते थे। या फिर तब, जब कभी-कभार बड़े साहब क़िले के दौरे पर आते थे। वरना उनकी समूची दुनिया हमीर महल के बंद दरवाज़े के भीतर सिमटी हुई थी, वो दरवाज़ा, जिसे पुरातत्व विभाग ने बाहरी दुनिया के लिए मज़बूती से बंद किया हुआ था।
‘पहाड़ी को समेटे खड़ा क़िला’ |
’कहिए ?’ उन्होंने
प्रश्न किया।
‘जी, भुवन चन्द्र जोशी जी...!’ जाने क्यों अधूरा सा उत्तर देना बेहतर लगा मुझे, हालांकि मैं निर्णय नहीं कर पाया कि ये मेरा उत्तर था या प्रतिप्रश्न। उन्हें पहचान लेने के बावजूद शायद पहले मैं उनके मुंह से सकारात्मक उत्तर पाकर पूरी तरह आश्वस्त हो जाना चाहता था।
‘जी हां मैं ही हूं भुवन चन्द्र जोशी !...और आप’ ? उन्होंने पूछा।
‘देहरादून में आपके एक दोस्त हुआ करते थे...विनय’ ! बजाय सीधा-सपाट उत्तर देने के मैं उनको तौलने के मक़सद से बेहद एहतियात के साथ कदम-दर-कदम आगे बढ़ना चाहता था क्योंकि वो प्रश्न अभी भी मेरे मन में कुलबुला रहा था, ‘...अगर वो जानबूझकर मुझे पहचानने से इंकार कर दें तो’ ? लेकिन तमाम आशंकाओं के विपरीत उनकी आवाज़ में मुझे थोड़ी गर्मजोशी सी महसूस हुई...और हल्की सी उत्तेजना भी...‘हां ! विनय तो मेरा सबसे अच्छा दोस्त था’।
‘उनके एक बड़े भाई थे...’, मैंने अगला कदम बढ़ाया।
‘हां हां, अशोक भाईसाहब !...मुझे याद है !...मेरी बात को बीच में ही काटते हुए थोड़ा झुककर वो उस खिड़कीनुमा दरवाज़े से बाहर निकल आए। उनकी बुझी हुई सी आंखों में एक चमक सी दिखी मुझे।
‘मैं उनका बेटा हूं’...मेरे कहते ही उनका चेहरा दमक उठा। ‘हिमांशु ?...तू हिमांशु है ?... अशोक भाईसाहब का बेटा ?...अरे, इतना बड़ा हो गया तू’ ?...कहते हुए झटके से उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। ‘आप’ से उनका एकदम से ‘तू’ पर आ जाना मुझे अच्छा लगा। अचानक उन्हें अपने प्रश्न की निरर्थकता का अहसास हुआ। खिसियाई सी हंसी हंसते हुए उन्होंने कहा, ‘क्या बेतुका सवाल किया मैंने कि तू बड़ा हो गया !...क्या करूं बेटा, मेरी यादों में तो तू आज भी वोही है...दस-ग्यारह बरस का।’
यादें...!!!...जिस उद्वेलन से जूझता और जोशी जी की जो छवि मन में लिए मैं तलहटी में बनी पुरातत्व विभाग की चौकी से चला था, वो उनसे गले लगते ही कहीं ग़ायब हो चुकी थी। एकाएक ख़ुद को बहुत हल्का महसूस किया मैंने।
‘लेकिन बेटा, तू अचानक यहां ?...मेरी याद कैसे आ गई तुझे ?...कैसे हैं घर में सब लोग ? ...विनय कहां है ?...और अशोक भाईसाहब ? उद्वेग और उत्तेजना से उनकी आवाज़ रूंधने लगी थी।
‘सब लोग अच्छे हैं। बहुत याद करते हैं आपको’। मेरा उत्तर सुनते ही उनके चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान तिर गयी। कुछ क्षण वो मुझे एकटक ताकते रहे...मौन !...उनकी बुझी हुई सी आंखों में फिर से मुझे एक चमक नज़र आई जो अगले ही क्षण बूंद की शक़्ल में उनके झुर्रियों भरे गालों पर ढलक पड़ी। कुरते की बांह से अपने गाल को पोंछते हुए उन्होंने ख़ुद को सम्हालने की कोशिश की और फिर मेरा हाथ पकड़ कर बोले, ‘अरे बेटा, बाहर ही खड़ा रहेगा क्या ?...चल अन्दर चल’ !
‘लेकिन...!’ मेरी नज़र दरवाज़े पर टंगे उस बोर्ड की तरफ़ उठी जिस पर लिखा था, - ‘प्रवेश वर्जित’!
उन्होंने सर उठाकर एक सरसरी निगाह बोर्ड पर डाली। ‘वो बाहर वालों के लिए है...तेरे लिए नहीं’। शायद वो मेरी दुविधा को भांप चुके थे। ‘चल आ...’ !
***
भीतर दाख़िल होते ही उन्होंने छोटे दरवाज़े को बंद कर उस पर सांकल चढ़ा दी। तो ये थी उनकी समूची दुनिया !...हमीर महल की चौहद्दी में सिमटी हुई ! मेरे सामने था विशाल आंगन...बाईं ओर कोठरीनुमा कमरों की कतार... आंगन के उस पार और दाईं ओर चौड़ा बरामदा...पत्थर के मज़बूत नक़्क़ाशीदार खम्भों पर टिकी बरामदे की छत...उस बंद क़िले के भीतर ठहरी हुई हवा में हल्की सी ठण्डक महसूस हुई मुझे...माहौल में एक अजीब क़िस्म की चुप्पी, सिहरन और घुटन थी !
भुवन जी मुझसे बहुत कुछ जानने को बेताब थे। मैंने उनके तमाम प्रश्नों के उत्तर दिए। मैंने उन्हें बताया कि पिताजी ने रिटायरमेण्ट के बाद देहरादून में ही मक़ान बनवा लिया है, विनय चाचाजी चण्डीगढ़ में हैं, मैं पिछले बारह सालों से मुम्बई में हूं, एक ज़रूरी काम से चार-पांच दिनों के लिए सवाई माधोपुर आया था, आज समय मिला तो आपसे मिलने यहां चला आया। ‘मुझसे मिलने’ !!!...उनके चेहरे पर अचरज, अविश्वास और आभार के मिले-जुले भाव अभी तक मौजूद थे। कुछ क्षणों की ख़ामोशी के बाद उन्होंने कहा, ‘चल तुझे दिखाऊं, यहां लोगों का आना क्यों मना है’।
मैंने देखा, हमीर महल के बरामदे और कोठरीनुमा कमरे पीतल-तांबे-लोहे के विशाल कढ़ाहों, पतीलों, थाल, परात से लेकर चांदी के छोटे-छोटे कटोरी, गिलास, चम्मच जैसे खाने-पकाने के सामान के अलावा तोप-तलवार, बन्दूक, भालों, ढालों और बख़्तर जैसे लड़ाई के साज़ोसामान से अटे पड़े थे। एक बेहद ख़ूबसूरत नक़्क़ाशीदार पानदान को हाथ में लेकर देखना चाहा लेकिन मेरे बढ़े हाथ को भुवन जी ने बीच ही में रोक दिया। ‘नहीं बेटा, छूना नहीं। सरकारी ख़ज़ाना है ये। बहुत कीमती है, सिर्फ रुपए-पैसे के ही नहीं अपनी उम्र के लिहाज़ से भी। ज़िन्दगी ग़ुज़ार दी है इनकी देखरेख में मैंने’, ये गर्वोक्ति तो नहीं थी लेकिन भुवन जी की आवाज़ में मुझे किंचित गर्व का सा अहसास ज़रूर हुआ। और ख़ुद पर थोड़ी शर्म भी आयी जिसे छुपाने की चेष्टा में मैं हंसने की हद्द तक मुस्कुराया। झेंपी हुई सी मुस्कुराहट...! लेकिन भुवन जी तो मेरी ओर से बेख़बर मानों अपनी ही धुन में खो चले थे। गर्मजोशी के साथ उन बेजान चीज़ों से परिचय कराते भुवन जी ! ...उनका वो बालसुलभ उत्साह, उनकी आंखों की चमक, उनका दमकता चेहरा...ये सब गवाह थे उस सदियों पुराने सामान और गोदाम में तब्दील हो चुके उस सूने महल के बेज़ुबान दरो-दीवार से उनके भावनात्मक जुड़ाव के। ‘पिछले पैंतीस बरसों से मेरे अकेलेपन के साथी हैं ये सब। जो अपनापन मुझे ज़िन्दगी भर कोई ज़िन्दा इंसान नहीं दे पाया वो इन मुर्दा चीज़ों ने दिया है’, उन्होंने कहा। ‘लेकिन अब...!’ टूटन सी महसूस हुई मुझे उनके अधूरे से इन अंतिम दो शब्दों में।
‘आपने शादी नहीं की‘ ? – जाने क्यों, कैसे और कहां से ये प्रश्न अचानक मेरी ज़ुबान पर आया और होंठों पर से फिसल पड़ा। लेकिन भुवन जी ने मेरी बात को अनसुना कर दिया। क्षणभर में उनके चेहरे पर कई-कई रंग आए और गए लेकिन तुरंत ही उन्होंने ख़ुद को सम्भाल भी लिया। ‘चल आ ऊपर चलें’ – निस्पृह भाव से उन्होंने कहा और कोठरियों की कतार के बीच बनी सीढ़ियां चढ़ने लगे। उनके पीछे आज्ञाकारी बालक सा मैं ! ‘कहीं उनके ज़ख़्मों को कुरेदने की कोशिश तो नहीं की मैंने ? आख़िर वो मेरे नहीं, मेरे चाचा के दोस्त हैं !...हर लिहाज़ में मुझसे बड़े !! क्या ज़रूरत थी मुझे उस लक्ष्मणरेखा को पार करने की ?...क्या हक़ है मुझे उनके निजी मामलों में दख़ल देने का’ ? - मेरे मन ने मुझे धिक्कारा।
हम सीढ़ियां चढ़कर छत पर पहुंचे। नीला कैनवास मुझे अपने बेहद क़रीब महसूस हुआ। चौहद्दी के भीतर ठहरी हुई हवा यहां खुली छत पर आते ही इठलाने लगी। गहरी सांस लेकर मैंने अभी तक की घुटन से छुटकारा पाने की भरपूर कोशिश की। ‘देख, ये है मेरी रसोई’ ! ...भुवन जी मुझे छत पर बने एक हॉलनुमा कमरे में ले आए। ‘ये इनकी रसोई है ? इतनी बड़ी, कि जिसमें मुम्बई का मेरा समूचा फ्लैट समा जाए’ ?...लेकिन अभी तो मुझे ताज्जुब में डालने के लिए और भी बहुत कुछ मौजूद था उस रसोई में। एक कोने में बना मिट्टी का चूल्हा...इधर-उधर बिखरी सूखी लकड़ियां और झाड़-झंखाड़ ...दीवार में बने आलों में रखे पतीली-थाली-परात और लोटा-गिलास जैसे पीतल के पांच-सात बर्तन...आधुनिकता का कोई नामोनिशान नहीं। सबसे ज़्यादा ताज्जुब मुझे भड्डू को देख़कर हुआ। भड्डू, यानी कि कांसे का घड़ेनुमा बर्तन जिसका इस्तेमाल कभी पहाड़ों में दाल पकाने के लिए किया जाता था और जिसका तर्पण आम पहाड़ी रसोईघरों में प्रेशरकुकर की घुसपैठ के साथ ही दशकों पहले हो चुका था। वोही भड्डू भुवन जी की रसोई में किसी प्रेत की भांति आज भी मौजूद था। रसोईघर की छत और दीवारें ही नहीं, बर्तन तक धुएं से काले पड़ चुके थे। भरी दुपहरी में भी वहां अंधेरा पसरा हुआ था...कुछ ज़्यादा ही स्याह ! कमोबेश यही हाल बग़ल के उस कमरे का भी था जिसमें भुवन जी रहते थे। आकार में रसोई से भी बड़े कमरे में सिर्फ एक छोटी सी खिड़की, जिससे भूली-भटकी सी अन्दर आती किरणें फ़र्श पर रोशनी का एक छोटा सा चकत्ता उकेर रही थीं। बाक़ी सब तरफ अंधेरा ही अंधेरा ! मैंने उस अंधेरे को टटोलने की कोशिश की। झोला हो चुकी खाट पर लटका हुआ सा गद्दा...उस पर बेतरतीबी से फैला कम्बल...खूंटियों पर टंगे तीन-चार जोड़ी कुर्ते-पायजामे। भुवन जी ने एक कोने में रखी लालटेन जलाई।
’लालटेन’ ? – मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकल पड़ा।
‘हां, बिजली नहीं है यहां’- भुवन जी ने उत्तर दिया।
‘इस वक़्त नहीं है या...’
‘है ही नहीं !...सारी ज़िन्दगी लालटेन की रोशनी में ग़ुज़ारी है मैंने’ – उन्होंने मेरी बात को काटते हुए कहा।
भुवन जी के लिए वक़्त शायद उसी क्षण ठहर चुका था जब बरसों पहले उन्होंने हमीर महल की चौहद्दी में अपना पहला कदम रखा था !!!
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'छतरियां'
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‘इसी झरोखे से देखा था मैंने तुझे आते हुए’ – भुवन जी की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी। ‘वो देख, वो रास्ता दिख रहा है न ?...उन झाड़ियों के पीछे ?...वहां से ऊपर आया था तू’ ! - उन्होंने मैदान के बाएं छोर पर बनी छतरियों के गिर्द फैली झाड़ियों की तरफ इशारा किया।...और बिना पूछे ही मुझे उस प्रश्न का उत्तर मिल चुका था जो महल के दरवाज़े पर भुवन जी को देखकर मेरे मन में कौंधा था – ‘इन्हें कैसे पता चला कि कोई बाहर खड़ा है’ ?
‘पैंतीस बरस हो गए मुझे रणथम्भौर आए हुए... याद ही नहीं कि इतने बरसों में मैंने कभी इस इलाक़े से बाहर कदम रखा हो। यहां तक कि हमीर महल की इस चारदीवारी से बाहर भी मजबूरी में ही निकलता हूं। वरना मैं अपनी इसी दुनिया में ख़ुश हूं बेटा’ – भुवन जी को किसी के साथ अपने मन की बात बांटने मौक़ा शायद पहली बार मिला था। ‘तू यक़ीन करेगा, इन पैंतीस बरसों में मैंने अपना सबसे ज़्यादा समय इस झरोखे में बिताया है’ ? ...और आगे उन्होंने जो कुछ कहा, उसकी कल्पनामात्र मुझे सिहरा देने को काफी थी। सर्दी-गर्मी-बरसात...घुप्प अंधेरी रातें...बियाबान पहाड़ी पर किसी पिशाच सा खड़ा बंद दरवाज़े का वो सूना महल...और ज़मीन से चालीस फ़ुट ऊपर उस झरोखे में रात-रातभर अकेले बैठे, ट्रांजिस्टर पर पुराने फिल्मी गीत सुनते भुवन चन्द्र जोशी !...सुनने में तो बहुत रूमानी लगता है ये सब...लेकिन ऐसे भुतहा माहौल में पलभर बिताने के लिए भी पत्थर का सा ठोस कलेजा चाहिए। नहीं, ये किसी सामान्य व्यक्ति के बस की बात तो हो ही नहीं सकती !
‘...लेकिन अब’ !...फिर वोही टूटन...वोही अधूरे से शब्द...आख़िर कहना क्या चाहते थे वो, जो कह नहीं पा रहे थे ?
‘सिर्फ दो साल और !...उसके बाद इस जगह से तमाम रिश्ते एक झटके में तोड़ देने पड़ेंगे मुझे’ !! – उनकी आवाज़ में बेपनाह दर्द था।
‘दो साल’ ?...एकबारग़ी तो मैं समझ नहीं पाया कि उनका मतलब क्या है। फिर अचानक ख्याल आया, कहीं इनका इशारा रिटायरमेण्ट की तरफ़ तो नहीं है?
‘क्या सोचा आपने रिटायरमेण्ट के बाद का’ ? – मैंने पूछा।
’कुछ नहीं !...क्या सोचूं’ ?
’देहरादून जाएंगे’ ?
’देहरादून जाएंगे’ ?
’किसलिए ?...वहां है ही कौन जो मेरे इंतज़ार में बैठा होगा ?’ – फीकी हंसी हंसते हुए उन्होंने कहा।
‘तो फिर’ ?
’पता नहीं !...सच में बेटा मुझे नहीं पता रिटायरमेण्ट के बाद मैं कहां जाऊंगा। बस इतना जानता हूं कि सरकार मुझे यहां नहीं रहने देगी...एक झटके में मुझे यहां से बेदख़ल कर दिया जाएगा’ – मुझे लगा कहीं वो फफक ही न पड़ें।
’पता नहीं !...सच में बेटा मुझे नहीं पता रिटायरमेण्ट के बाद मैं कहां जाऊंगा। बस इतना जानता हूं कि सरकार मुझे यहां नहीं रहने देगी...एक झटके में मुझे यहां से बेदख़ल कर दिया जाएगा’ – मुझे लगा कहीं वो फफक ही न पड़ें।
क़रीब दो घण्टे मैंने उनके साथ बिताए। उन्होंने बहुत ज़िद की कि मैं कम से कम एक कप चाय तो पियूं। लेकिन जाने क्यों मैं चाहकर भी उनकी बात नहीं रख पाया। ‘क्यों परेशान करूं...सिर्फ एक कप चाय के लिए इन्हें चूल्हा जलाना पड़ेगा...और फिर पता नहीं चीनी-पत्ती-दूध भी होगा इनकी रसोई में या नहीं...वैसे भी बड़े-बुज़ुर्ग कहते हैं कि घर अगर बनता है तो स्त्री से’ !...और मैंने चाय के लिए विनम्रता से इंकार करते हुए उनसे विदा ली। वो महल के बंद दरवाज़े तक मुझे छोड़ने आए। गले लगाकर उन्होंने मुझसे कहा कि मैं पिताजी और चाचाजी तक उनकी दुआ-सलाम ज़रूर पहुंचा दूं और कहूं कि भुवन चन्द्र जोशी आज भी उन्हें भूले नहीं हैं।
***
‘हिमांशु’...!
मैं बाहर आकर बामुश्क़िल दस कदम चला होऊंगा कि भुवन जी ने मुझे आवाज़ दी। वापस मुड़ा तो देखा वो भी उस छोटे दरवाज़े से होकर महल से बाहर निकल आए थे।
‘जी...?'
‘बेटा तूने मुझसे एक सवाल किया था न, कि मैंने शादी क्यों नहीं की ?...तो सुन ! मैंने जब कभी औरत के बारे में सोचा तो मीठी यादें लिए सिर्फ एक चेहरा मेरे ज़हन में उभरा...बिना नैन-नक़्श का चेहरा...धुंधलाया सा...मेरी मां का चेहरा, जो मुझे इसलिए याद नहीं है क्योंकि मेरे होश सम्भालने का भी इंतज़ार नहीं किया था उसने... बहुत जल्दी जो थी उसे भगवान के पास जाने की...लेकिन सारी उम्र का प्यार ज़रूर उसने उन दो-ढाई बरसों में लुटा दिया था मुझ पर !...और उसके बाद मेरे साथ जो कुछ हुआ वो सब तो तुझे लोगों से पता चला ही होगा’ !
इस बात का मैं क्या उत्तर देता ! बस, मूर्तिवत खड़ा सुनता रहा।
‘बेटा, आज तेरे सवाल ने मजबूर कर दिया था मुझे कि मैं ख़ुद से पूछूं, आख़िर मैंने शादी क्यों नहीं की। वरना तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था इस बारे में। आज सोचना पड़ा तो उत्तर भी आसानी से मिल गया। तो सुन, शादी न करने का ये मेरा ‘फैसला’ था...’मजबूरी’ नहीं। सच तो ये है कि मैंने कभी अपनी ज़िन्दगी को किसी औरत के साथ बांटना ही नहीं चाहा क्योंकि मेरे नसीब में लिखा औरत के प्यार का भण्डार तो बचपन के उन ढाई बरसों में ही चूक गया था। उसके बाद बचा था तो सिर्फ तिरस्कार और दुत्कार’।
उनके चेहरे पर एक विचित्र सी मुस्कान उभरी। कुछ क्षण ख़ामोशी से मुझे घूरते रहने के बाद बेहद ठहराव के साथ, दृढ़ता भरे स्वर में उन्होंने कहा - ‘बचपन से लोगों की जिस दया का बोझ उठाए और गले में बेचारा शब्द की तख़्ती लटकाए ज़िन्दगी ग़ुज़ारता आया, आज मैंने उससे छुटकारा पा लिया है बेटा। पता नहीं दोबारा कभी तुम लोगों से मिल भी पाऊंगा या नहीं, लेकिन तू उन सब तक मेरी ये बात ज़रूर पहुंचा देना कि मैंने ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर और बहुत ही मज़े में ग़ुज़ारी थी ! ...अकेलापन रास आ गया था मुझे !!...अपनी ज़िन्दगी को बांटना मुझे गवारा नहीं था, किसी औरत के साथ तो हरगिज़ नहीं’ !!!
वो मुड़कर महल में दाख़िल हुए और दरवाज़े पर सांकल चढ़ाकर वापस अपनी दुनिया में समा गए।
***
‘फ़िरोज़े सी चमकती झील’ |
मुझे लगा, नीले कैनवास पर छितराए सेमल की रूई के फाहे उनकी आंखों में उतरकर मोतियों में तब्दील हो चुके हैं। मैं मुड़ा और तेज़ी से पहाड़ी उतरने लगा।
याद ही नहीं, उस वक़्त मेरे कदम ज़्यादा भारी थे या मन !
........................बंद दरवाज़े का सूना महल / शिशिर कृष्ण शर्मा
(‘पाखी’ / जून 2011 में प्रकाशित
!!!)
Very touching story. Surender was an orphan, in-spite of his family. Never got love and always demonised by her mother. When I met him in the fort and recognised him after 3 years of constant encounter, it was very painful event. Latter I came to know from him that he recognised me 3 years back. But did not meet me because I was an officer. True, life goes like this and we don't have any control. It pains me whenever I think of him and his past.
ReplyDeleteShishir, if you face towards national park (north), the entire hill ranges are made up of Bhilwara Supegroup of rocks (not Aravalies). These rocks are even older than Aravalies and comparable to the oldest rocks of thhe world, called archean (oldest) rocks of the world. The views towards 'छतरियां ' is Vindhyan mountains.. And in between these two super structures, there is 'Great Boundary Fault, running north-south direction.
Now Surender is happily back to his own house at Gurudwara road, Karanpur. But still refuses to meet anybody.
thanks for the encouraging comment sir...i properly google-searched about ranthambore's flora-fauna n geography before start writing and found that this fort is situated at the junction of aravali n vindhya ranges...since rajasthan forts always attract me, i used 'aravali range' in the story because as sn as we think of aravali, rajashtan automatically comes to mind...on the other side, vindhya goes to madhya pradesh...sir, this is a kind of liberty which fiction writers enjoy n that's what i did...!!!
ReplyDeletehere is the link about the geography of the said area sir...
http://www.skywaltz.com/flight_locations_rantharmbore.php
आह!
ReplyDeleteइतना सुन्दर लिखा है कि मानो हिमांशु की जगह मैं खुद "भुवन चाचाजी" से मिल रहा हूँ। सारी घटनाएं मेरी आँखों के सामने हो रही है।
क्या यह सत्य घटना है?
हृदय स्पर्शी यात्रा वृत्तांत
ReplyDeleteमन के भाव समंदर हैं💐
ReplyDeleteबहुत हृदयस्पर्शी!
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