“मण्टो
का
बम्बई”
धर्मेन्द्रनाथ
ओझा द्वारा
निर्मित
वृत्तचित्र !!!
(मूलत: 2 अप्रैल 2005 के साप्ताहिक ‘सहारा समय’ में प्रकाशित)
(मूलत: 2 अप्रैल 2005 के साप्ताहिक ‘सहारा समय’ में प्रकाशित)
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मण्टो : 11 मई 1912 - 18 जनवरी 1955 |
सआदत
हसन मण्टो
! उर्दू
साहित्य
की वो
शख़्सियत
जिनकी
तुलना
चेखव और
मोपांसा
से की
जाती है।
लेकिन
समाज को
और अपने
सम्पर्क
में आने
वाले हरेक
शख़्स को
बिल्कुल
अलग नज़रिए
से देखने
और काग़ज़
पर उसका
बेबाक
ख़ाका खींचने की
उनकी फ़ितरत
ने अगर
लाखों
पाठकों
को उनका
दीवाना
बनाया
तो दुश्मनों
की फ़ौज
खड़ी करने में
भी कोई
कसर नहीं
छोड़ी।
मुम्बई
से मण्टो
को बेहद
प्यार
था। वो
मुम्बई
जो उस
ज़माने
में बम्बई
कहलाती
थी। जनवरी
सन 1948 में
पाकिस्तान
जाने से
पहले के
बारह बरस
मण्टो
ने इसी
मुम्बई
में गुज़ारे
थे। और
उन बारह
बरसों
में मण्टो
ने तमाम
रंगीनियों
से लबरेज़
और सपने
जगाने
वाली जगमगाती
मुम्बई
की जगह
उन गली-कूंचों
की ख़ाक
छानी थी, जहां
क़दम रखने
से पहले
कोई भी
शरीफ़ इंसान
एकबारगी
हिचकिचाएगा
ज़रूर।
दिन के
उजाले
हों या
रात के
अंधेरे, इन्हीं
जगहों
पर मण्टो
अपनी कहानी
के किरदारों
को तलाशते
फिरते
थे। कहानी
‘मम्मदभाई’ और ‘रामखेलावन’
के नायक
हों या
‘सिराज’
का ढोंढू,
‘मोजेल’ की
नायिका
हो, या
फिर ‘हतक’
की सौगंधी,
मण्टो
को ये
सभी लोग
गन्दगी
से बजबजाती
नालियों
और कूड़े-करकट
के ढेर
से अटे
इन्हीं
गली-कूंचों
में मिले
थे। मण्टो
कहते थे,
“मैं चलता
फिरता
बम्बई
हूं”।
शायद इसलिए,
कि मुम्बई
का असली
चेहरा
देखा था
उन्होंने।
तमाम आलोचनाओं
और अपने
ख़िलाफ़
दायर मुक़द्दमों
की तरफ़
से बेपरवाह
मण्टो
ये कहना
नहीं भूलते
थे कि,
“मैं सोसायटी
की चोली
क्या उतारूंगा,
सोसायटी
तो है
ही नंगी।
मैं उसे
कपड़े पहनाने
की कोशिश
भी नहीं
करता| इसलिए,
कि ये
मेरा काम
नहीं है”।
मुम्बई
में मण्टो
के गुज़ारे
उन बारह
बरसों
में एक
बार फिर
से झांकने
की कोशिश
की है
युवा लेखक-निर्देशक
धर्मेन्द्रनाथ
ओझा ने,
जिनके
द्वारा
बनाया
गया वृत्तचित्र
“मण्टो
का बम्बई”
इन दिनों
ख़ासी चर्चा
में है।

धर्मेन्द्र
कहते हैं,
“अतीत मुझे
हमेशा
से लुभाता
आया है।
मण्टो
की कहानियों
से ही
मुझे पता
चला कि
कभी मुम्बई
में भी
ट्रामें
चला करती
थीं। उनकी
कहानियों
में वर्णित
पुरानी
मुम्बई
के अरब
गली, नागपाड़ा,
कमाठीपुरा, मोहम्मदअली
रोड, बिस्मिल्लाह
होटल, प्लेहाऊस
के पास
‘अल्फ़्रेड’
समेत कतार
से बने
सिनेमाघरों
जैसी जगहों
को और
उस वक़्त
को मैं
ख़ुद जीना
चाहता
था। मैं
शिद्दत
से महसूस
करता था,
अगर ये
सब एक
बार फिर
से जीवंत
हो उठे
तो...?
और इस
‘तो’
ने ही
मुझे ये
वृत्तचित्र
बनाने
के लिए
प्रेरित
किया”।

धर्मेन्द्र
के अनुसार,
“इस वृत्तचित्र
के निर्माण
के दौरान
मुश्किलें
भी कम
पेश नहीं
आईं। सबसे
बड़ी मुश्किल
तो पैसे
को लेकर
थी। कुल
अनुमानित
बजट का
एक तिहाई
भी मेरे
पास नहीं
था। ऐसे
में दोस्त
और शुभचिंतक
मदद के
लिए आगे
आए और
सभी ने
बिना एक
भी पैसा
पारिश्रमिक
लिए वृत्तचित्र
में काम
किया।
यहां तक
कि उन्होंने
अपने आने-जाने
और खाने
के व्यय
तक से
मुझे मुक्त
रखा। दूसरी
बड़ी मुश्किल
थी मण्टो
के मुम्बई
प्रवास
की अवधि
(1936 से
1947)
के दौरान
बजने वाले
हिट गीतों
और उस
ज़माने
में इस्तेमाल
किए जाने
वाले साज़ो-सामान
की व्यवस्था
की, लेकिन
शुभचिंतकों
के सहयोग
से ये
समस्या
भी सुलझ
गयी। ख़ासतौर
से मैं
उन पारसी
बुज़ुर्ग
का ज़िक्र
ज़रूर करना
चाहूंगा
जो उस
ज़माने
से सहेजकर
रखी अपनी
कार लेकर
ख़ुद लोकेशन
पर पहुंचे
थे”।
मण्टो
की कहानी
‘मम्मदभाई’
में वर्णित
सफ़ेद गली
का पता
लगाने
में भी
धर्मेन्द्र
को बहुत
मुश्किल
हुई क्योंकि
ये नाम
उस इलाक़े
में रह
रहे लोगों
के लिए
अनजाना था। कई
दिनों
की जद्दोज़हद
के बाद
वहां रहने
वाले एक
बुज़ुर्ग
शख़्स से
पता चला
कि उस
ज़माने
में सफ़ेद
गली, रेडलाईट
एरिया
की गलियों
को कहा
जाता था।
धर्मेन्द्र
के मन
में इस
बात की
कसक है
कि उन्हें
क्लेयर
रोड स्थित
एडेल्फ़ी
चेम्बर
नाम की
इमारत
के उस
कमरा नम्बर
17 में
शूटिंग
की इजाज़त
नहीं मिली
जिसमें
कभी उर्दू
पत्रिका
‘मुसव्विर’
का कार्यालय
था और
जिसके
उपसम्पादक
बनकर साल
1936 में
मण्टो
मुम्बई
आए थे।
धर्मेन्द्रनाथ
ओझा की
ये फ़िल्म
“मण्टो
का बम्बई”
प्रबुद्धवर्ग
द्वारा
काफ़ी सराही
जा रही
है और
अब वो
इसे पाकिस्तान
और तेहरान
में होने
जा रहे
फ़िल्म
समारोहों
में भेजने
की तैयारी
में हैं।
......प्रस्तुति : शिशिर कृष्ण शर्मा
......प्रस्तुति : शिशिर कृष्ण शर्मा
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“मण्टो
का बम्बई”
का प्रदर्शन
–
‘फ़िल्म्स
डिविज़न’ द्वारा
आयोजित
‘मुम्बई
अंतर्राष्ट्रीय
फ़िल्म
समारोह’ (फरवरी-2006)
‘कोलकाता
फ़िल्म
समारोह’ (अक्टूबर-2006)
तिरूअनंतपुरम
में आयोजित
‘केरल
अंतर्राष्ट्रीय
फ़िल्म
समारोह’ (मार्च-अप्रैल
2007)
पेरिस
स्थित
‘फ़्रेंच
आर्ट सोसायटी’
द्वारा
साल 2008 में
सबटाईटल्स
के साथ
प्रदर्शन।
पेरिस
विश्वविद्यालय
के उर्दू
विभाग
द्वारा
विषय ‘मण्टो’
के साथ
“मण्टो
का बम्बई”
शामिल
की गयी।
पाकिस्तान
सरकार
द्वारा
आयोजित
समारोह
में “मण्टो
का बम्बई”
को नज़रअंदाज़
कर दिए जाने
के बाद
प्रबुद्धजन की सलाह
पर ‘तेहरान
फ़िल्म
समारोह’ समेत
किसी भी
इस्लामी
मुल्क़
में आयोजित
होने वाले
फिल्म
समारोहों
में इस
वृत्तचित्र
को नहीं
भेजा गया।
वजह : मण्टो
और इस्मत
चुगताई
की बेबाक़
लेखनी
को लेकर
इन मुल्क़ों
की सरकारों
की नाराज़गी।
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परिचय
:
धर्मेन्द्रनाथ
ओझा
जन्म
: 13 दिसम्बर
1976, सासाराम
(बिहार)
10वीं
तक की
पढ़ाई सासाराम
से, तदोपरांत
दिल्ली
आकर 11वीं
और 12वीं
दिल्ली
सरकार
के हायर
सेकण्डरी
स्कूल
से। दिल्ली
के हंसराज
कॉलेज
से बी.ए.(ऑनर्स),
एम.ए.
की पढ़ाई
अधूरी
छोड़कर
1999 में
मुम्बई
चले आए।
अनुराग
कश्यप
के साथ
सहायक
निर्देशक
के तौर
पर टी.वी.शो
‘स्टार
बेस्टसैलर’ से करियर की शुरूआत।
अतनु बिस्वास,
भाग्यश्री
और अभिनव
कश्यप द्वारा
निर्देशित
विभिन्न
टी.वी.कार्यक्रमों
से बतौर
सहायक
निर्देशक
जुड़े रहने
के बाद अब स्वतंत्र
लेखन।
टी.वी.धारावाहिकों
‘हर
मोड़ पर’,
‘प्रतिमा’, ‘घर
आजा परदेसी’,
‘आज फिर
जीने की
तमन्ना
है’ और
‘अफ़सर
बिटिया’ का
लेखन।
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Anand aa gaya..........
ReplyDeleteबहुत ही शानदार लेख। बहुत बहुत धन्यावाद। मंटो जी पंजाब में जिला लुधियाना में हमारे पास के गांव पपडोदी में रहते थे। एक बार फिर आभार शिशिर कृष्ण शर्मा जी।
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