“वो
सर्द शाम”
…………………..कहानी:
शिशिर कृष्ण
शर्मा
(स्वांत:
सुखाय/अप्रकाशित/ लेखन
वर्ष: 1988-89)
बाहर
शायद
बर्फ़
गिर
रही
थी।
मरघट
के
से
सन्नाटे
को
चीरती
हुई
हवा
बारम्बार
खिड़की-दरवाज़ों
पर
सर
पटक
रही
थी और
दीवारों
पर
उभरे
सायों
में
लालटेन
की
थरथराती
लौ
जुम्बिश
भर
रही
थी।
नोएल
ने
दीवार
घड़ी
पर
नज़र
डाली,
रात
के
दस
बजने
को
थे।
“उफ़्फ़...! कितनी
भयंकर
ठंड
है”!...वो
बुदबुदाया,
कंबल
को
अच्छी
तरह
से
अपने
गिर्द
लपेटकर
उसने
आरामकुर्सी
को
आतिशदान
के
और
क़रीब
खिसकाया
और
फिर
से
आंखें
उपन्यास
में
गड़ा
दीं।
लगातार गिर रही बर्फ़ की वजह से धनोल्टी पिछले चार दिनों से आसपास के इलाक़ों से पूरी तरह से कटा हुआ था।
लगातार गिर रही बर्फ़ की वजह से धनोल्टी पिछले चार दिनों से आसपास के इलाक़ों से पूरी तरह से कटा हुआ था।
कुछ
लम्हे
नोएल
यों
ही
पढ़ता
रहा।
बाहर
हवा
का
शोर
बढ़ने
लगा
था।
नोएल
उठा,
खिड़की
का
पर्दा
हटाकर
उसने
शीशे
पर
जमी
ओस
को
हथेली
से
साफ़
किया
और
अपने
चेहरे
को
शीशे
के
बेहद
क़रीब
ले
आया
मानों
बाहर
कुछ
टटोलने
की
कोशिश
कर
रहा
हो।
बाहर
घुप्प
अंधेरा
था...और
उस
अंधेरे
में
था
धुंधलाया
हुआ
सा
चीड़
के
दरख़्तों
का
झुरमुट...बर्फ़
से
ढंका
हुआ।
हवा
का
शोर
बेतरह
बढ़ता
रहा।
नोएल ने खिड़की का परदा फैलाया, वापस आकर कुर्सी पर बैठा और फिर से उपन्यास पढ़ने लगा।
नोएल ने खिड़की का परदा फैलाया, वापस आकर कुर्सी पर बैठा और फिर से उपन्यास पढ़ने लगा।
अचानक
बाहर
के
दरवाज़े
पर
दस्तक
हुई।
नोएल
चौंका,
लेकिन
हवा
का
शोर
समझकर
उसने
निगाहें
फिर
से
उपन्यास
में
गड़ा
दीं।
नीचे
घाटी
में
कोई
कुत्ता
रोया।
...और
चीखता
हुआ
एक
चमगादड़
खिड़की
के
बाहर,
कांच
से
आ
टकराया।
“साहब
जी”
! ...”साहब
जी”
!! किसी
लड़की
ने
दबे
स्वर
में
पुकारा।
साथ
ही
दरवाज़े
पर
फिर
से
दस्तक
हुई।...पहले
से
कहीं
ज़्यादा
तेज़...ज़्यादा
साफ़।
नोएल
बेतरह
चौंक
पड़ा।
“इस
बेवक़्त
कौन
आ
टपका”?...वो
बड़बड़ाया
और
उठकर
उसने
झटके
से
दरवाज़ा
खोल
दिया।
सामने
सक्तम्बा
खड़ी
थी... नोएल
के
गढ़वाली
नौकर
जयसिंह
की
किशोरवय
बेटी
सक्तम्बा।
उसके
कपड़ों
पर
जगह-जगह
बर्फ़
के
फ़ाहे
अटके
हुए
थे
और
चेहरा,
शायद
ठंड
से,
सफ़ेद
पड़ा
हुआ
था।
“तुम?...कैसे
आयीं
इस
वक़्त
मसूरी
से?
रास्ते
बिल्कुल
बंद
हैं
और...”
– नोएल
की
आवाज़
में
आश्चर्य
और
अविश्वास
का
मिलाजुला
भाव
था।
”भीतर
आने
को
नहीं
कहेंगे
साहब
जी”?...सक्तम्बा
की
आवाज़
मानों
किसी
गहरे
कुएं
में
से
आयी।
सर्द
हवा
का
झोंका
नोएल
की
रीढ़
तक
को
सिहरा
गया।
नीचे
घाटी
में
कुत्ता
रिरिया
उठा।
“ओह
हां”!...”आओ
अंदर”
!! नोएल
ने
कहा।
वो
अब
भी
आश्चर्य
से
सक्तम्बा
को
घूरे
जा
रहा
था।
सक्तम्बा
ख़ामोशी
से
भीतर
आ
गयी।
नोएल
ने
दरवाज़ा
बंद
किया
और
हवा
एक
बार
फिर
से
दरवाज़े
पर
सर
पटकने
लगी।
नोएल
समझ
ही
नहीं
पा
रहा
था
कि
इतनी
रात
गए
इस
जानलेवा
ठंड
में,
जबकि
रास्ते
बिल्कुल
बंद
हैं,
तूफ़ान
और
बर्फ़बारी
के
बीच
सक्तम्बा
मसूरी
से
तीस
किलोमीटर
दूर
धनोल्टी
तक
कैसे
आ
पहुंची!
”मसूरी
में...घर
पर
ही”!
सक्तम्बा
ने
जवाब
दिया
और
एक
कोने
में
जा
खड़ी
हुई।
“सक्तम्बा, इधर आ जाओ”! ...”आतिशदान के क़रीब”!! नोएल ने कहा।
“मैं
इधर
ही
ठीक
हूं
साहब
जी”!
सक्तम्बा
के
भावशून्य
चेहरे,
पथराई
आंखों
और
गहरे
कुएं
में
से
आती
आवाज़
ने
नोएल
को
भीतर
तक
कंपा
दिया।
कमरे
में
ख़ामोशी
छा
गयी।
हवा
का
शोर
हल्का
पड़ने
लगा।
नीचे
घाटी
से
कुत्ते
के
रिरियाने
की
आवाज़
साफ़-साफ़
सुनायी
दी।
बाहर
चीड़
की
कोई
शाख,
शायद
बर्फ़
के
बोझ
से,
टूट
कर
गिर
पड़ी।
“साहब
जी,
आप
घर
कब
लौटेंगे”?
सक्तम्बा
ने
चुप्पी
तोड़ी।
“क्यों?...पहले
भी
तो
कई
बार
घर
से
दूर
रहता
आया
हूं...घर
को
तुम्हारे
और
जयसिंह
के
भरोसे
छोड़कर।
इस
बार
ही
ये
सवाल
क्यों?
सक्तम्बा
तुम
कुछ
छुपा
रही
हो।
सच-सच
बताओ
आख़िर
बात
है
क्या?
तुम
आयीं
कैसे
यहां?
जवाब
दो”!
कुछ
पल
सक्तम्बा
ख़ामोश
रही।
फिर
फीकी
हंसी
हंसती
हुई
बोली,
“कॉफ़ी
बनाऊं
साहब
ज़ी”?
वो
शायद
बात
को
टाल
जाना
चाहती
थी।
नोएल
भीतर
ही
भीतर
झल्ला
पड़ा।
वो
सक्तम्बा
से
बहुत
कुछ
जानना
चाहता
था
और
सक्तम्बा
थी
कि
उसके
हरेक
सवाल
को
आसानी
से
टाले
जा
रही
थी।
हंसती-खिलखिलाती,
चुहल
करती
सक्तम्बा
की
जगह
आज
रहस्यों
का
आवरण
ओढ़े,
ज़र्द
चेहरे
और
पथराई
आंखों
वाली
सक्तम्बा
सामने
खड़ी
थी
और
नोएल
स्तब्ध
था।
कमरा
एक
बार
फिर
से
सन्नाटे
की
ग़िरफ़्त
में
था।
आतिशदान
में
जलती
लकड़ियां
चटखती
रहीं
और
उन
दोनों
के
बीच
ख़ामोशी
किसी
दीवार
की
तरह
खड़ी
रही।

“सक्तम्बा”!
नोएल
ने
धीरे
से
पुकारा।
“आख़िर
बात
क्या
है?...कुछ
तो
बोलो”!
सक्तम्बा
धीरे
से
नोएल
की
तरफ़
घूमी...ज़र्द
चेहरा
और
पथराई
आंखें
लिए।
नोएल
पहले
से
कहीं
ज़्यादा
गहरी
महसूस
होती
उसकी
आंखों
से
ही
कुछ
जान
लेने
की
असफल
कोशिश
करता
रहा।
“साहब
जी,
पिताजी
बहुत
बीमार
हैं।
मैं
डॉक्टर
को
बुलाने
गयी
तो
उसने
मेरे
साथ
बहुत
बुरा
किया...!
मैं
बहुत
रोयी-गिड़गिड़ाई,
लेकिन
उस
पर
कोई
असर
नहीं
हुआ।
उस
बर्फ़
में,
तूफ़ान
में
मेरी
चीखें
सुनने
वाला
भी
कोई
नहीं
था”।
सक्तम्बा
की
आवाज़
भर्राने
लगी
थी।
नोएल
ने
देखा,
उसकी
आंखें
डबडबा
उठी
थीं।
“फिर
डॉक्टर
ने
मुझे
अपने
घर
के
पीछे,
खाई
में
धकेल
दिया।
साहब
जी...!
पिताजी
को
बचा
लीजिए
साहब
जी...वो
बहुत
बीमार
हैं।
आप
घर
लौट
चलिए”।
सक्तम्बा
फफक
पड़ी
थी।
नोएल
के
जबड़े
भिंच
गए
थे
और
क्रोध
और
बेबसी
से
उसकी
सांसें
तेज़
हो
उठी
थीं।
नीचे
घाटी
में
कुत्ता
ज़ोरों
से
रो
रहा
था।
एकाएक
नोएल
को
स्टोव
पर
रखे
दूध
का
ख़्याल
आया।
वो
भागकर
किचन
में
पहुंचा
तो
देखा
दूध
उबल-उबलकर
फ़र्श
पर
बह
रहा
है।
बचे-खुचे
दूध
से
कॉफ़ी
तैयार
करके
वो
कमरे
में
आया
तो
सक्तम्बा
वहां
नहीं
थी।
उसने
ट्रे
को
मेज
पर
रखा
और
आतिशदान
के
क़रीब
बैठकर
सक्तम्बा
का
इंतज़ार
करने
लगा।
उसका
ख़्याल
था
कि
सक्तम्बा
बाथरूम
में
होगी।
लंबे
इंतज़ार
के
बाद
वो
बाथरूम
तक
पहुंचा।
सक्तम्बा
वहां
नहीं
थी।
नोएल
बेडरूम
में
गया,
सक्तम्बा
वहां
भी
नहीं
थी।
“सक्तम्बा...”!
नोएल
ने
पुकारा
लेकिन
कोई
उत्तर
नहीं
मिला।
पागलों
की
तरह
उसने
कॉटेज
का
कोना-कोना
छान
मारा,
सक्तम्बा
कहीं
नहीं
थी।
कॉटेज
से
बाहर
जाने
का
एकमात्र
दरवाज़ा
भी
भीतर
से
बंद
था।
सक्तम्बा कॉटेज के भीतर ही कहीं विलुप्त हो चुकी थी।
हवा
का
शोर
धीमा
पड़ने
लगा
था।
घाटी
का
कुत्ता
शायद
कहीं
दुबककर
सो
गया
था।
आतिशदान
की
आग
ठंडी
पड़
चुकी
थी।
दूर
कहीं
गिरजे
के
घंटे
बज
उठे
थे।
नोएल
खड़ा
थरथर
कांप
रहा
था।
बर्फ़
शायद
अब
भी
गिर
रही
थी।
………………………………………….वो
सर्द शाम
/ शिशिर कृष्ण
शर्मा
(मेरी
पहली कहानी
/ लेखन वर्ष:
1988-89)