“कविता
से कहानी
तक" –
जितेन
ठाकुर
मुलाक़ात
– कहानीकार
जितेन
ठाकुर
के साथ
कविता
से कहानी
तक.......!!!
(जितेन
ठाकुर)
“...जाने
वो कैसी
घड़ी थी
कि प्रिंस
के ये
सोचते
ही इच्छा
फलीभूत
हो गयी।
ज़मीन पर
पैर पड़ते
ही प्रिंस
इंसान
बन गया।
पर तभी
प्रिंस
ने देखा
कि उसके
द्वारा
खाली की
गयी जगह
को भरने
के लिए
इंसानों
की एक
बड़ी भीड़
जमा हो
गयी है
जो पूरे
मनोयोग
और समर्पित
भाव से
जनाब के
स्लीपर
पर गाल
रगड़ रही
है। प्रिंस
ने पुकारना
चाहा और
शायद पुकारा
भी, पर
जनाब के
स्लीपर
पर सबसे
पहले गाल
रगड़ लेने
की कोशिश
में उभरती
हड़बड़ाहट
और शोर
के बीच
उसकी आवाज़
गुम हो
गयी।
...हताश
निराश
प्रिंस
फिर से
कुत्ता
बन गया..............!”
(जितेन
ठाकुर
की नवीनतम
और अप्रकाशित
कहानी
‘ज़िंदगी
गुलज़ार
है’ का
एक अंश।)
मई
2015 के अंतिम
सप्ताह
में ओल्ड
सर्वे
रोड, देहरादून
स्थित
आवास पर
‘व्यंग्योपासना’
के साथ
हुई ख़ास
मुलाक़ात
के दौरान
निजी और
लेखकीय
जीवन पर
जितेन
ठाकुर
की विस्तृत
और बेलाग
बातचीत।
मेरा
जन्म, मेरा
परिवार
–

बंटवारे
के बाद
साल 1947 में
क़बायली
हमले के
दौरान
क़बायलियों
ने पुंछ
को चारों
तरफ़ से
घेर लिया
था। ऐसे
में जान
बचाने
के लिए
हमारे
परिवार
को राहत
सामग्री
लेकर आए
भारतीय
वायुसेना
के डकोटा
विमान
में बैठकर
खाली हाथ
जम्मू
भाग आना
पड़ा था।
हमारे
परिवार
ने ‘बारादरी’
के नाम
से मशहूर,
जम्मू
स्थित
‘पुंछ
हाऊस’ में शरण ली।
पुंछ में
हमारी
190 एकड़ ज़मीन
थी जो
पाकिस्तान
में चली
गयी थी।
उधर जम्मू
की हमारी
200 एकड़ ज़मीन
पर शेख
अब्दुल्ला
के बनाए
कानून
के तहत
काश्तकारों
का कब्ज़ा
हो गया
था। जम्मू
में आज
भी मेरे
नाम क़रीब
80 बीघा ज़मीन
है लेकिन
वो भी
औरों के
क़ब्ज़े
में है।
अचानक
भूमिहीन
हो जाने
की वजह
से 2 साल
बाद हमें
जम्मू
भी छोड़
देना पड़ा।
तब तक
मेरे दादा
गुज़र चुके
थे।
पुंछ
के राजा
4 भाई थे
जिनमें
से 3 देहरादून
में रहते
थे। उनमें
से एक
महाराजा
सुखदेव
सिंह की
पत्नी
‘रानी
साहिबा
उतेलिया’ के
बुलावे
पर मेरे
पिता उनके
मैनेजर
बनकर देहरादून
चले आए।
मेरी नानी
उतेलिया
रियासत
में ‘वज़ीरनी’
थीं जिन्हें
‘रानी
साहिबा
उतेलिया’ के
विवाह
के बाद
उनके साथ
पुंछ चले
आना पड़ा
था। साथ
में मेरे
नाना और
मां भी
थे। ‘रानी
साहिबा
उतेलिया’ ही
मेरे माता
-पिता के
विवाह
का माध्यम
बनी थीं।
मैं
माता-पिता
की अकेली
संतान
हूं।
मेरी
शिक्षा -
देहरादून
के ‘कांवेंट
ऑफ़ जीसस
एंड मेरी’
से मैंने
कक्षा
1 और 2 की
पढ़ाई की। चूंकि
लड़कों
के लिए
ये स्कूल
कक्षा
2 तक ही
था इसलिए
कक्षा
3 में मैंने
कारमन
स्कूल
में दाखिला
ले लिया।
कारमन
स्कूल
उन्हीं
दिनों
खुला था
और कक्षा
3 का हमारा
ये पहला
बैच था।
लेकिन
7-8 महिने
बाद ही
हमें देहरादून
छोड़कर
रानी साहिबा
उतेलिया
के साथ
हरिद्वार
चले जाना
पड़ा। वयोवृद्ध
रानी साहिबा
की इच्छा
थी कि
वो अपना
अंतिम
समय हरिद्वार
में बिताएं
और गंगा
किनारे
प्राण
त्यागें।
कक्षा
3 से 5 तक
की पढ़ाई
मैंने
हरिद्वार
के हैप्पी
स्कूल
से और
6 से 9 तक
की पढ़ाई
भल्ला
कॉलेज
से की।
यही वो
समय था
जब मुझमें
लेखन के
संस्कार
पैदा हुए।
लेखन
के
अंकुर
–
हमारे
कोर्स
में एक
नाटक था,
‘पृथ्वीराज
की आंखें’।
मैंने
उस नाटक
के विरोध
में एक
नाटक लिखा
जिसमें
नैतिकता
के आधार
पर पृथ्वीराज
चौहान
को पश्चाताप
करते हुए
दिखाया
गया था।
दरअसल
इतिहास
कहता है
कि संयोगिता
रिश्ते
में पृथ्वीराज
की बहन
थी। मेरे
लिखे नाटक
में पृथ्वीराज
चन्दबरदाई
के सामने
पश्चाताप
करता था
कि मैंने
बहन को
प्रेमिका
के रूप
में देखा
इसीलिए
मेरी आंखें
चली गयीं।
वो नाटक
मैंने
अपने ट्यूशन
टीचर को
पढ़ाया
तो उन्होंने
हैरान
होकर कहा
था, ‘तुम
बहुत अच्छे
लेखक बनोगे’।
...मैं
उस वक़्त
8वीं में
था।
देहरादून
वापसी –
रानी
साहिबा
उतेलिया
के निधन
के बाद
साल 1968 में
हम लोग
उनके देवर
राजा जगदेव
सिंह के
पास देहरादून
लौट आए।
तब तक
मैं 9वीं
पास कर
चुका था।
देहरादून
आकर मैंने
डी.ए.वी.
इण्टर
कॉलेज
में 10वीं
में दाखिला
ले लिया।
मेरी माता
को पढ़ने
का बहुत
शौक़ था।
उनके पसन्दीदा
लेखकों
में प्रेमचन्द,
बंकिमचन्द्र, शरतचन्द्र
जैसे विद्वान
कहानीकारों-उपन्यासकारों
के साथ
ही कुशवाहाकांत
भी शामिल
थे। अपनी
स्कूली
पढ़ाई के
साथ साथ
मैं इन
तमाम लेखकों
को भी
पढ़ता रहता
था। ये
भी एक
वजह थी
जो मुझमें
साहित्य
के संस्कार
पैदा हुए।
डी.ए.वी.
इंटर कॉलेज
से विज्ञान
के विषयों
के साथ
12वीं करने
के बाद
मैंने
पढ़ाई छोड़
दी। ये
वो दौर
था जब
मैं दुनिया
को बदलकर
रख देना
चाहता
था। दिलोदिमाग
में हर
वक़्त क्रांतिकारी
विचारों
का सैलाब
उमड़ता
रहता था।
मैं वामपंथी
रंग में
रंग चुका
था। 1972 से
1977 तक के
मेरे 5 साल
आलोक उपाध्याय
और वेद
उनियाल
जैसे छात्रनेताओं
के सान्निध्य
में गुज़रे
जो कोलकाता
के वामपंथी
ग्रुप
के साथ
जुड़े हुए
थे। मेरा
लेखन अबाध
गति से
चल रहा
था। मैं
कविताएं
और गीत
लिखता
था। क्रांतिकारी
और साम्यवादी
विचार
ही मेरी
रचनाओं
का आधार
हुआ करते
थे।
मेरी
पहली
प्रकाशित
रचना –
मेरी
पहली कविता
1971 के भारत-पाक
युद्ध
के बाद
प्रकाशित
हुए काव्य-संकलन
‘दहकते
स्वर’ में
छपी थी।
देहरादून
के तमाम
साहित्यकारों
के सम्मिलित
प्रयासों
और अंशदान
से अस्तित्व
में आए
इस काव्य
संकलन
में देहरादून
के कवियों
की रचनाएं
शामिल
थीं। संकलन
का सम्पादन
मनोहरलाल
उनियाल
‘श्रीमन’
और सुखबीर
विश्वकर्मा
ने संयुक्त
रूप से
किया था।
ख्यातिप्राप्त
कवि, नाटककार
और शिक्षाविद
डॉ.रामकुमार
वर्मा
का ख़ासतौर
से देहरादून
आकर हम
कवियों
को सम्मानित
करना मेरे
लिए बेहद
उत्साहवर्धक
साबित
हुआ। जोशो-ख़रोश
से भरा
मैं लगातार
लिखता
चला गया।
मेरी
कविताएं,
मेरा
लेखन
–
साल
1975 में मेरा
पहला कविता
संकलन
‘चंद
सांचे
चांदनी
के’ प्रकाशित
हुआ। उधर
दो कविताएं
‘खोखले
आदमी का
विद्रोह’ और
‘तुम
और क़त्ल
की साज़िश’
धर्मयुग
के लिए
स्वीकृत
हुईं।
उन्हीं
दिनों
आपातकाल
की घोषणा
हुई और
सरकार
द्वारा
वो दोनों
कविताएं
सेंसर
कर दी
गयीं।
मुझे डॉ.
धर्मवीर
भारती
का पत्र
मिला जिसमें
उन्होंने
कविताएं
न छाप
पाने को
लेकर अपनी
मजबूरी
जताई थी।
धर्मयुग
के सम्बन्धित
अंक में
कविताओं
के पूरे
पृष्ठ
को विरोधस्वरूप
काले रंग
में रंगा
गया था।
कविता
के साथ
साथ मैंने
कहानी
पर भी
हाथ आज़माना
चाहा तो
नतीजा
सकारात्मक
ही निकला।
साल 1978 में
सारिका
में पहली
कहानी
छपी जिसका
शीर्षक
था, ‘वजूद’
और जो
बेहद चर्चित
हुई। कमलेश्वर
जी के
सम्पादक
पद छोड़
देने के
बाद सारिका
का ये
पहला अंक
था। कमलेश्वर
जी की
जगह सारिका
में अब
कन्हैयालाल
‘नंदन’
जी आ
गए थे।
उधर 1980 में
धर्मयुग
ने मेरी
कविता
‘पितृऋण
और मैं’
छापी।
...पहली
बार राष्ट्रीय
स्तर पर
छपने का
वो सुख
अद्वितीय
था।
वामपंथ
से
मोहभंग –
समय
के साथ
साथ दुनिया
को बदलकर
रख देने
का मेरा
जोशोख़रोश
ठण्डा
पड़ने लगा
था। वामपंथ
का पाखण्ड
और खोखलापन
मेरे सामने
खुल चुका
था। जिन
पूंजीपतियों
का हम
विरोध
करते थे,
उन्हीं
के पास
सम्मेलनों
के लिए
चंदा लेने
जाते थे।
नेताओं
की कोशिश
रहती थी
कि वो
भी उन
तमाम सुविधाओं
को जुटाएं
जो एक
आरामदेह
ज़िन्दगी
के लिए
ज़रूरी
होती हैं।
ज़ाहिर
है, दुनिया
को बदलने
की बात
सिर्फ़
शब्दों
का व्यापार
थी। मैं
शिद्दत
से महसूस
करने लगा
था कि
जब तक
हम आत्मनिर्भर
नहीं होंगे
तब तक
औरों को
आश्रय
नहीं दे
सकते।
मैं समझ
चुका था
कि लफ़्फ़ाज़ी
और नारों
से दुनिया
नहीं बदली
जा सकती
इसलिए
बजाय दुनिया
के, मैंने
ख़ुद को
बदलने
की कोशिश
की। सबसे
पहले मैंने
अपनी छूट
चुकी पढ़ाई
को दोबारा
शुरू करने
का फ़ैसला
किया।
साल
1977 में मैंने
राजनीतिशास्त्र,
समाजशास्त्र
और हिंदी
विषयों
के साथ
बी.ए.
में दाख़िला
ले लिया।
साल 1980 में
मेरा विवाह
हुआ। जनवरी
1981 में मुझे
क्षेत्रीय
परिवहन
विभाग
(आर.टी.ओ.)
देहरादून
में नौकरी
मिली।
नौकरी
में रहते
मैंने
एम.ए.
(हिंदी)
किया और
फिर साल
1986 में पी.एच.डी.
भी कर
लिया।
कहानी
का
सफ़र
–
कभीकभार
कहानी
लिख लेने
के बावजूद
मेरी पहचान
एक कवि
की ही
बनी हुई
थी। लेकिन
पी.एच.डी.
करने का
नुक़सान
ये हुआ
कि मैं
हरेक चीज़
को तार्किक
दृष्टि
से देखने
लगा। नतीजतन
उसके बाद
मैं कविता
लिख ही
नहीं पाया।
मैंने
अपना पूरा
ध्यान
कहानी
पर केन्द्रित
कर लिया।
जल्द ही
मुझे सकारात्मक
परिणाम
भी मिलने
लगे। ‘गंगा’
में मेरी
कहानी
‘दौड़’
छपी और
‘गंगा’
के सम्पादक
कमलेश्वर
जी से
मेरी निकटता
हुई। राजेन्द्र
यादव ने
‘हंस’
में ‘आतंक’
और उसके
बाद लगातार
13 कहानियां
छापीं।
साल 1993 में
12 कहानियों
का मेरा
पहला कहानीसंग्रह
‘दहशतगर्द’
बाज़ार
में आया
जिसकी
भूमिका
कमलेश्वर
जी ने
लिखी थी।
साल 1995 में
मेरा कहानीसंग्रह
‘अजनबी
शहर में’
छपा जिसमें
14 कहानियां
शामिल
थीं।
उधर
मैं हिंदी
के अलावा
अपनी मातृबोली
डोगरी
में भी
लिखने
लगा था।
जल्द ही
7 कहानियों
और 1 लघु
उपन्यास
के साथ
मेरा एक
डोगरी
कहानीसंग्रह
‘न्हेरी
रात-सनैहरे
ध्याड़े’ भी
पाठकों
तक पहुंच
गया।
अब
तक मैं
100 से ज़्यादा
कहानियां
और 4 उपन्यास
लिख चुका
हूं जिनमें
से 1 उपन्यास
प्रकाशनाधीन
है। हालिया
कहानियों
में ‘चोर
दरवाज़ा’ फ़रवरी
2015 की कादम्बिनी
में और
‘नुंचे
पंख वाली
तितली’ अप्रैल
2015 के ज्ञानोदय
में छपी
थी। जल्द
ही ‘चोर
दरवाज़ा’ नाम
से ही
मेरा एक
कहानीसंग्रह
भी प्रकाशित
होने जा
रहा है।
मेरा
घर, मेरा
परिवार
–
मेरे
पिता का
निधन साल
2008 में हुआ।
2009 में मां
भी नहीं
रहीं।
अब परिवार
में मैं,
मेरी पत्नी
और एक
बेटा हैं।
बेटी ऋचा
का विवाह
हो चुका
है। जम्मू
के वज़ीर
परिवार
के उसके
पति उदयसिंह
वज़ीर एडवोकेट
हैं। बेटा
विशाल
अंग्रेज़ी
का पत्रकार
है और
देहरादून
से निकलने
वाले अंग्रेज़ी
दैनिक
‘गढ़वाल
पोस्ट’ से
जुड़ा हुआ
है।
...और
अंत में
–
आने
वाले अक्टूबर
माह में
मैं सेवानिवृत्त
हो जाऊंगा।
उसके बाद
लेखन के
लिए मेरे
पास समय
की कमी
नहीं होगी।
अब तो
बस यही
इच्छा
है कि
जब तक
जीयूं, मेरी
कलम चलती
रहे। हिंदी
साहित्य
के दो
प्रतिष्ठित
सम्मान, ‘कमलेश्वर
कथा सम्मान’
और ‘कृष्णप्रताप
कथा सम्मान’
मुझे मिल
चुके हैं,
लेकिन
सबसे बड़ा
सम्मान
है पाठकों
का स्नेह
और प्रेम।
वो सदैव
बरसता
रहे, यही
आकांक्षा
है।
....................आख़िर
साहित्य
में पाठक
ही तो
गॉडफ़ादर
हैं !
(संपर्क
: जितेन
ठाकुर, 4,
ओल्ड सर्वे
रोड, देहरादून,
उत्तराखण्ड
–
248001 / सम्पर्क
: 09410925219)
..................................................प्रस्तुति
: शिशिर
कृष्ण
शर्मा