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मायापुरी की कहानियां
1. पुकार
(1939)
निर्माता : सोहराब मोदी
निर्देशक : सोहराब मोदी
कथा : विष्णुपन्त औंधकर
निर्देशक : सोहराब मोदी
कथा : विष्णुपन्त औंधकर
पटकथा : कमाल अमरोही
संवाद : कमाल अमरोही
संवाद : कमाल अमरोही
संगीत
: मीर साहब
आर्ट-सेट्स :
रूसी के.बैंकरकैमरा : वाय.डी.सरपोतदार
‘पुकार!’...जहांगीर के इन्साफ़ पर बनी एक ज़बरदस्त फिल्म...दो अलग-अलग प्रेमकहानियों का फ्यूज़न, जहांगीरी इंसाफ़ के तड़के के साथ...शानदार-जानदार-वज़नदार सेट्स, लाइट्स, कैमरावर्क और म्यूजिक...नतीजा?...सुपरहिट!
पहली प्रेम कहानी है मंगलसिंह (सादिक़ अली*) और कुंवर (शीला*) की... कुंवर बाग़ में गाना गा रही है – ‘गीत सुनो वो गीत सैयां जो हम सबके होश उड़ा दे...’ और गीत सुनने के लिए अकबरी टोपी पहने हुए सैयां दीवार फांदकर बाग़ के अन्दर टपक पड़ते हैं...
कुंवर
और
मंगलसिंह
के
खानदान
एक-दूसरे
के
खून
के
प्यासे
हैं...
दुश्मन
से
बहन-बेटी
की
मोहब्बत
राजपूती
मूंछ
की
लड़ाई
में
तब्दील
हो
जाती
है,
मंगलसिंह
पर
हमला
होता
है
और
उस
लड़ाई
में
ख़ुद
हमलावर
यानि
कुंवर
का
भाई
और बाप ही ऊपर रवाना हो जाते
हैं...बेचारी
कुंवर
तो
अनाथ
भई
लेकिन
मंगलसिंह
के
मां-बाप
शोभा
(जिल्लोबाई*) और
संग्रामसिंह
(सोहराब मोदी) ऊपरवाले की दया से अभी भी हट्टेकट्टे गबरू हैं...
मंगलसिंह
की
जान
ख़तरे
में
है
इसलिए
वो
सल्तनत से नौ दो ग्यारह हो जाता
है...शहंशाह जहांगीर
(चन्द्रमोहन*) संग्रामसिंह
को
हुक्म
देते
हैं
कि
वो
अपने
क़ातिल
बेटे
को
ढूंढकर
क़ानून
के
सामने
पेश
करें...
जहांगीर
की
बेगम
नूरजहां
(नसीम*) के
कहने
पर
संग्रामसिंह
यतीम
हो
चुकी
कुंवर
की
देखरेख
की
ज़िम्मेदारी
अपने
ऊपर
ले
लेते
हैं...
नसीम गाती बहुत अच्छा थीं...इस फिल्म में खुद के लिए गाया उनका सोलो ‘ज़िंदगी का साज़ भी क्या साज़ है...’ उस ज़माने में बहुत हिट हुआ था...नसीम को ‘परीचेहरा’ यानि परी जैसा चेहरा कहा जाता था...
नसीम गाती बहुत अच्छा थीं...इस फिल्म में खुद के लिए गाया उनका सोलो ‘ज़िंदगी का साज़ भी क्या साज़ है...’ उस ज़माने में बहुत हिट हुआ था...नसीम को ‘परीचेहरा’ यानि परी जैसा चेहरा कहा जाता था...
संग्रामसिंह अपने बेटे
मंगलसिंह
को
वापस
लाकर
क़ानून
के
हवाले
तो
कर
देते
हैं,
लेकिन
जहांगीर
से
बेटे
की
जान
की
भीख मांगना नहीं भूलते...पर
इंसाफ़पसंद
जहांगीर
संग्रामसिंह
की
एक
नहीं
सुनता
और
मंगलसिंह
को
कुंवर
के
भाई
और
बाप
के
क़त्ल
के
जुर्म
में
सज़ाए-मौत
सुना
देता
है...
दो
दिग्गजों के
बीच ज़बरदस्त
डायलॉगबाज़ी,
शानदार अदाकारी,
बादशाह के
इनकार के
बाद मजबूर
बाप की
टूटन को
बयां कर
देने वाली
सोहराब मोदी
की ख़ामोशी - कम से
कम इस
बेमिसाल सीन
के लिए
तो ये
फ़िल्म देखी
ही जानी
चाहिए…
पास
की
एक
धोबी
बस्ती
में
रहने
वाली
रानी
धोबन
(सरदार अख्तर)
समेत
बस्ती
के
तमाम
लोग
नदी
पर
कपड़े
धोते
समय
गाना
गाते
हैं -‘धोए महूबे
घाट...हे
हो
धोबिया
रे
धोबिया
कहां
तुम्हारो
अवनन
...’(गाना गाने से कपड़े ज़्यादा साफ़ धुलते हैं...)
एक रोज़ ‘परीचेहरा’ का तीर परिंदे की जगह रामी धोबन के पतिदेव को परलोक भेज देता है...
बेटे की सज़ाए मौत से तिलमिलाए-बौखलाए संग्रामसिंह की झोली में नेतागिरी का मौक़ा खुद-ब-खुद आ टपकता है...वो रामी धोबन समेत धोबी बस्ती के तमाम लोगों के जुलूस की नेतागिरी करता हुआ जहांगीर के दरवाज़े पर पहुंच जाता है, कि ‘चल अब कर इंसाफ़!’
जहांगीर
की
हालत
‘तत्ते दूध’
वाली, ‘न निगला
जाए,
न
थूका
जाए’,
एक
तरफ़
तो
उसकी
मोहब्बत
यानि
‘परीचेहरा’ और
दूसरी
तरफ़
इन्साफ़
की
पुकार...और जहांगीरी इंसाफ़ का
तकाज़ा - ’खून का बदला खून’ यानि ‘शौहर के बदले शौहर’ वरना भरे दरबार में जहांगीरी इंसाफ़ की तो हवा निकल ही जाएगी, नाक कटेगी सो अलग...जहांगीर रामी धोबन के
हाथों में तीर-कमान थमाता है और बहुत ही दिलेर मेहंदी इंसान की तरह उसके सामने 56 इंच का सीना तानकर खड़ा हो जाता है...
.....अंत भला तो सब भला, हलक से वापस अपनी जगह रवाना होते प्राणों को शहंशाह कतई ज़ाहिर नहीं होने देता...रामी धोबन को हीरे-जवाहरात-सोने-चांदी से लादकर उसे ‘जानबख्शी’ की कीमत चुका दी जाती है...
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’चलाओ
तीर’...’चलाओ
तीर’...शहंशाह
के
रिकॉर्ड
की
सुईं
इन्हीं
दो
अल्फ़ाज़
पर
अटकी
हुई
है...देखने
वालों
के
छक्के
छूटे
हुए
हैं,
रामी
धोबन
के
सत्ते
और
शहंशाह
के
अट्ठे...लेकिन
रिकॉर्ड
की
सुईं
का
’तामील हो’...’तामील
हो’...
और
रामी
को
तीर-कमान
उठाना
ही
पड़ता
है...
ज़बरदस्त
टेंशन...उल्टी
गिनती
शुरू...फोर...थ्री...टू...वन...और संग्रामसिंह
झपटकर
रामी
को
रोक
देता
है...
संग्रामसिंह
का
भयंकर
ड्रामा...इमोशंस
से
खदबदाता
हुआ
लंबा-चौड़ा
भाषण,
जिसका
निचोड़
है
- ‘राजा अपने
लिए
नहीं
प्रजा
के
लिए
होता
है,
प्रजा
क्यों
अनाथ
हो?’
(और मन
में
– ‘रामी तो
बहाना
है,
असल
मक़सद
बेटे
को
छुड़ाना
है!’)
.....अंत भला तो सब भला, हलक से वापस अपनी जगह रवाना होते प्राणों को शहंशाह कतई ज़ाहिर नहीं होने देता...रामी धोबन को हीरे-जवाहरात-सोने-चांदी से लादकर उसे ‘जानबख्शी’ की कीमत चुका दी जाती है...
‘रामी’ भी खुश, ‘रानी’ भी खुश, ‘प्रजा’ खुश, ‘राजा’ सबसे ज़्यादा खुश कि ‘जान बची!’...’परीचेहरा’ की तो बांछें इस हद तक खिल उठती हैं कि वो इस ख़ुशी के मौक़े पर शहंशाह से तमाम क़ैदियों की रिहाई की मांग ही कर बैठती हैं...संग्रामसिंह
मन
ही
मन
मुस्कुराता
है
- ‘देखा टेढ़ी
उंगली
का
कमाल?’...मंगलसिंह
क़ैदखाने
से
बाहर
आता
है
और
फ़ौरन
ही उसे कुंवर
की
क़ैद
में
पटक
दिया
जाता
है...बैकग्राऊंड
में
शहनाई
बजती
है
और
परदे
पर
ये
तस्वीर
चमकती
है...
विष्णुपन्त
औंधकर
की
लिखी
कहानी
पर
बनी
फिल्म
‘पुकार’ का
स्क्रीनप्ले,
डायलॉग
और
गाने
सैयद
अमीर
हैदर
कमाल
यानि
कमाल
अमरोही
ने
लिखे
थे...
इस
फिल्म
के
म्यूज़िक
डायरेक्टर
मीर
साहब
इससे
पहले
‘मिनर्वा मूवीटोन’
की
1938
में
बनी
फिल्मों
‘तलाक़’ और
‘जेलर’ में भी म्यूज़िक
दे
चुके
थे...
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चलते-चलते
: सोहराब मोदी
ने
1970
के
दशक
में
‘पुकार’ टाइटल
से
ही इस फ़िल्म का रीमेक
बनाना
शुरू
किया
था
जिसमें
राजकपूर,
दिलीप
कुमार,
शशि
कपूर,
राखी
और
सायरा
बानो
के
अलावा
खुद
सोहराब
मोदी
काम
कर
रहे
थे...
रीमेक
के
लिए
नौशाद
ने
जांनिसार
अख्तर
के
लिखे
दो
गीत
‘तोरी नज़रों
से
धोबनिया
लागे
मन
में
कांटा
रे’
(मुकेश) और
‘तोरे कुरते
से
तोरा
बदन
झलके
काहे
धोया
रे
धोबनिया’
(मुकेश, आशा
भोंसले)
रिकॉर्ड
भी
कर
लिए
थे...
लेकिन
ये
फिल्म
पूरी
नहीं
बन
पायी... .................................................................................................. 'वो
कौन
थे?'
सादिक़ अली* ‘मिनर्वा मूवीटोन’ की फिल्मों के स्थायी कलाकार, जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे...उनकी पहली पाकिस्तानी फिल्म 1950 की ‘जुदाई’ थी, लेकिन पाकिस्तान में उन्हें ख़ास कामयाबी नहीं मिली...1960 के दशक में लकवाग्रस्त होने के बाद उन्होंने ज़िंदगी के आख़िरी कई साल कराची की कैपिटल सिनेमा लेन में गुजारे...उनका इंतकाल 1977 में कराची में हुआ...
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चन्द्रमोहन*
मध्यप्रदेश
के
नरसिंहपुर
शहर
के
एक
कश्मीरी
पंडित
परिवार
में
पैदा
हुए
थे
लेकिन
उनका
बचपन
ग्वालियर
में
बीता...उनका
पूरा
नाम
चन्द्रमोहन
वट्टल
था...उन्होंने 1934
में
बनी
फिल्म
‘अमृतमंथन’ से
डेब्यू
किया
था...
15
साल
के
अपने
करियर
में
चंद्रमोहन
ने
करीब
दो
दर्जन
फिल्मों
में
काम
किया...वो
1949
में
महज़
44
बरस
की
उम्र
में
गुज़र
गए
थे...
सादिक़ अली* ‘मिनर्वा मूवीटोन’ की फिल्मों के स्थायी कलाकार, जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे...उनकी पहली पाकिस्तानी फिल्म 1950 की ‘जुदाई’ थी, लेकिन पाकिस्तान में उन्हें ख़ास कामयाबी नहीं मिली...1960 के दशक में लकवाग्रस्त होने के बाद उन्होंने ज़िंदगी के आख़िरी कई साल कराची की कैपिटल सिनेमा लेन में गुजारे...उनका इंतकाल 1977 में कराची में हुआ...
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शीला*
शोलापुर
के
एक
रेलवे
अधिकारी
की
बेटी,
जो
सोहराब
मोदी
के
परिचित
थे...शीला
का
असली
नाम
रोशनआरा
था
और
वो
एक
बेहतरीन
गायिका
भी
थीं...
फिल्म
‘पुकार’ से
पहले
उन्होंने
मिनर्वा
की
‘तलाक़’ और
‘जेलर’ में
भी
अभिनय
किया
था...वो
अपने
गीत
खुद
ही
गाती
थीं...
............................................................
............................................................
जिल्लोबाई*
साईलेंट
के
ज़माने
से
फिल्मों
में
काम
कर
रही
थीं...वो
1930
और
40
के
दशक
की
इतनी
बड़ी
स्टार
फ़िल्मी
मां
थीं
कि
उनका
नाम
ही
जिल्लो
मां
पड़
गया
था...महबूब
खान
की
वो
पसंदीदा
अभिनेत्री
थीं...उनकी
सबसे
बड़ी
पहचान
‘मुग़लेआज़म’ में
मधुबाला
की
मां
के
तौर
पर
है...
............................................................

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नसीम
बानो*
हसनपुर
(मुरादाबाद) के
ज़मींदार
अब्दुल
वाहिद
और
उस
ज़माने
की
मशहूर
शास्त्रीय
गायिका
शमशाद
बेगम
उर्फ़
छमिया
की
बेटी
थीं...उन्होंने
सोहराब
मोदी
की
पहली
फिल्म
‘हेमलेट उर्फ़
खून
का
खून’
से
डेब्यू
किया
था...1950
के
दशक
में
एक्टिंग
को
अलविदा
कहने
के
बाद
उन्होंने
अपनी
अभिनेत्री
बेटी
सायरा
बानो
के
लिए
कई
फिल्मों
में
ड्रेस
डिजाईनिंग
का
काम
किया...नसीम
को
परीचेहरा
(?)
कहा
जाता
था...
(ये नामकरण सूरदास जी ने किया था...)
.................................................................................................(ये नामकरण सूरदास जी ने किया था...)
सरदार
अख्तर*
लाहौर
की
रहने
वाली
थीं...उन्होंने
साल
1940
में
बनी,
नेशनल
स्टूडियो
की
फिल्म
‘औरत’ में
राधा
का
किरदार
निभाया
था...यही
किरदार
17
साल
बाद
यानी
1957
में,
फिल्म
‘औरत’ के
रीमेक
‘मदर इंडिया’
में
नरगिस
ने
किया...इन
दोनों
ही
फिल्मों
के
निर्देशक
महबूब
खान
थे...
सरदार
अख्तर
ने
साल
1942
में
महबूब
खान
शादी
कर
ली
थी...
.................................................................................................
.................................................................................................
आभार
: सर्वश्री हरमंदिर
सिंह
‘हमराज़’ (कानपुर),
रजनीकुमार
पंड्या
(अहमदाबाद), हरीश
रघुवंशी
(सूरत), अरूण
कुमार
देशमुख
(मुम्बई), एस.एम.एम.औसजा
(मुम्बई), जय शाह
और
योगेश
सोनावणे
(‘शेमारू’ - मुम्बई) , संजीव तंवर (दिल्ली)
.................................................................प्रस्तुति
: शिशिर कृष्ण
शर्मा