“उस साये का
रहस्य!”
……...शिशिर
कृष्ण शर्मा
साल
1991/92
का दिसंबर/जनवरी
माह...देहरादून
के दक्षिणी
छोर पर शिवालिक
रेंज की
पहाड़ी पर
राजाजी नेशनल
पार्क से
सटा हमारा
पुश्तैनी गांव
नवादा...साल के
घने जंगलों
से घिरा...सुनसान...बियाबान...रानी
कर्णवती के
ज़माने में
ये गांव
टिहरी रियासत
की सर्दियों
की राजधानी
हुआ करता
था...देहरादून
शहर स्थित
'सर्वे
ऑफ़ इंडिया' कॉलोनी का
सरकारी मकान
छोड़कर गांव
में शिफ्ट
हुए हमें
कुछ ही
महीने हुए
थे...
रेलवे
में कार्यरत
मेरा छोटा
भाई उन
दिनों राजस्थान
के आबूरोड
स्टेशन पर
पोस्टेड था...होमसिकनेस
का आलम
ये,
कि हर
महिने दो-चार
दिन के
लिए घर
चला आता
था और
भारी मन
और उससे
भी ज़्यादा
भारी कदमों
से वापस
लौटता था...दिल्ली
तक रात
की बस
और वहां
से अगली
सुबह अहमदाबाद
की ट्रेन,
वापसी का
उसका ये
रूटीन तय
था...दिल्ली
की आख़िरी
बस 10.30
पर रवाना
होती थी,
उसे बसस्टैंड
पर मैं
छोड़ता था
और बस
के आंखों
से ओझल
होने के
बाद ही
घर लौटता
था...उस
वक़्त मेरे
मन और
कदमों का
हाल भी
उस जैसा
ही हुआ
करता था...
उस
रोज़ उसे
आबूरोड वापस
लौटना था...सामान
पैक हो
चुका था
और हम
घर से
निकलने ही
वाले थे...उस
ज़माने के
इकलौते टी.वी.
चैनल दूरदर्शन
पर रात
9
बजे के
समाचार चल
रहे थे...
तभी
(आज के
हिसाब से
'ब्रेकिंग')
न्यूज़ आयी
कि 4
खालिस्तानी आतंकवादी
लखनऊ जेल
से फरार
हो गए
हैं...और
हमारे छक्के
छूट गए...खालिस्तानी
आतंकवादी देहरादून
शहर में
भी हत्या
और लूट
की वारदातें
कर चुके
थे और
अक्सर हरिद्वार
की दिशा
में छिद्दरवाला
के सिखबहुल
ग्रामीण इलाक़े
में पनाह
लेते थे...
देहरादून
बसस्टैंड तक
जाने का
हमारा एकमात्र
रास्ता हरिद्वार
रोड ही
था जिसके
दोनों तरफ,
रिस्पना नदी
तक,
गन्ने के
खेत,
आम-लीची
के बागीचे
और यूकेलिप्टिस
के पेड़ों
की कतारें
हुआ करती
थीं...शहर
रिस्पना के
पुल के
उस पार
शुरू होता
था...
घर से
हरिद्वार रोड
तक का
2
किलोमीटर का
रास्ता भी
खेतों-बागीचों
के बीच
से होकर
गुज़रता था...नवादा...हरिपुर...माजरी
माफी...और
फिर हरिद्वार
रोड पर
मोहकमपुर...ये
सब गांव
भले ही
आबाद थे,
लेकिन कड़ाके
की उस
ठण्ड में
रात के
9
बजते बजते
रजाईयों में
सिमट जाते
थे...यानि
हर तरफ़
घुप्प अंधेरा...
सन्नाटा...और
डर...
'कहीं
खेतों में
आतंकवादी न
छिपे हुए
हों!'...'हथियार
भी होंगे
उनके पास!'...’अगर
हम उनके
हत्थे चढ़
गए तो?’
- जैसी तमाम
आशंकाओं से
मन बेतरह
उद्वेलित हो
उठा था...
हम रात
10 बजे
बसस्टैंड पहुंचे,
दोनों ही
एक-दूसरे
की मन:स्थिति
को समझ
रहे थे,
मैं जानता
था वो
मेरे अकेले
वापस लौटने
को लेकर
चिंतित है,
हालांकि दोनों
ने ही
अपने चेहरों
पर बनावटी
हिम्मत और
बेफ़िक्री ओढ़ी
हुई थी...
‘भाईसाहब
आप जाओ,
यहां कहां
आधा घंटा
इतनी ठण्ड
में खड़े
रहोगे?’
– उसने कहा
और उस
रोज़ मैंने
पहली बार
बजाय उसे
विदा करने
के,
खुद ही
उससे विदा
ले ली...
रिस्पना के
पुल तक
तो हिम्मत
बंधी रही
लेकिन पुल
पार करते
ही मारे
भय के
सांसें अटकने
लगीं...शहर पीछे छूट चुका
था और
अब हर
तरफ़ खेत,
घने बाग़-बागीचे
और घुप्प
अंधेरा था...शहर
की ही
तरह आतंकवादियों
का डर
भी कहीं
पीछे रह
गया था
और दिलो-दिमाग
पर बड़े-बुजुर्गों
के मुंह
से सुने
भूत-प्रेत-चुड़ैलों
के किस्से
हावी होने
लगे थे...
शहर
से लौटते
समय रिस्पना
के पुल
से ठीक
पहले जो
ढलान है,
वो किसी
ज़माने में
घसरपड़ी की
ढाल कहलाती
थी...उस
ढाल पर
आधी रात
को रिस्पना
नदी की
तरफ से
उछलता-कूदता-झूमता,
दौड़ता चला
आ रहा
12-15 फुट
का दैत्याकार
साया...जोगीवाला
चौक से
पहले सड़क
के किनारे
पीपल के
पेड़ पर
फंदे से
झूलती लाश
जो सुबह
होने से
पहले ही
गायब हो
जाती थी...और
मोहकमपुर में
खेतों में
से अचानक
ही एक
सिरकटे साये
का सड़क
के बीच
में आकर
खड़ा हो
जाना...ऐसे
तमाम किस्से-कहानियों
ने दिल
की धड़कन
और मोटरसाइकिल
की स्पीड
के बीच
एक ज़बरदस्त
तारतम्य स्थापित
कर दिया
था और
मैं कब
जोगीवाला पहुंच
गया,
पता ही
नहीं चला...
इलाके की
बिजली गुल
मिली और
जोगीवाला की
पुलिस चौकी
में महज़
एक मोमबत्ती
टिमटिमाती दिखी
तो धड़कनों
और मोटरसाईकिल
की रफ़्तार
दोगुनी हो
गयी...और
तभी मोटरसाईकिल
की रोशनी
में करीब
पचास मीटर
आगे,
सड़क के
दूसरी तरफ़
जो कुछ
नज़र आया,
उसने मुझे
बुरी तरह
से झकझोर
कर रख
दिया...उस
हाड़ गला देने वाली ठण्ड
में भी
माथे पर
पसीना चुहचुहा
उठा था...
.........वो
बामुश्किल दो
फुट का
एक सफ़ेद
साया था...ज़मीन
से एक-डेढ़
फुट ऊपर
हवा में
लटका हुआ...ऊपर
नीचे हिलता
हुआ...अपने
दोनों हाथ
ऊपर उठाए
हुए...मैंने
ब्रेक लगाना
चाहा लेकिन
रफ़्तार इतनी
तेज़ थी
कि लगा
रूकते रूकते
भी उसके
बगल में
जाकर ही
रुकूंगा...मैंने
रफ़्तार और
बढ़ा दी
और जोर
जोर से
गायत्री मन्त्र
पढ़ने लगा...ॐ
भूर्भुव स्व:
तत्सवितु वरेण्यम...और
जैसे ही
उस
साये के
क़रीब पहुंचा,
मेरी घबराहट
और भय
ने अनायास
ही ठहाके
का रूप
ले लिया...बल्कि
ठहाके की
जगह उसे
अट्टहास कहना
कहीं बेहतर
होगा...अगर
मैं यू-टर्न
लेकर वापस
लौटने में
कामयाब हो
गया होता
तो बड़े-बुजुर्गों
के मुंह
से सुने
भूत-प्रेत-चुड़ैलों
के दशकों
पुराने किस्से-कहानियों
में हवा
में तैरते
ढाईफुटे सफ़ेद
साये का
एक क़िस्सा
और जुड़
जाता...
दरअसल वो एक गधा था...सफ़ेद मुंह और सफ़ेद कानों वाला गधा जिसका बाक़ी शरीर गाढ़े भूरे रंग का था...वो सड़क के किनारे इत्मीनान से खड़ा, दोनों कान ऊपर उठाए अपनी गर्दन ऊपर-नीचे हिला रहा...मोटरसाईकिल की रोशनी ने उसके सफ़ेद चेहरे और खड़े कानों को एक अलग ही रूप दे दिया था...उसके बाद भी वो मुझे उस इलाके में कई बार नज़र आया...उन
दिनों वहां
सड़क के
किनारे एक
नर्सरी हुआ
करती थी
- शायद 'आशा'
नर्सरी
- जो पता
नहीं अब
है या
नहीं लेकिन
मेरे ख्याल
से
वो गधा
उसी नर्सरी
की धरोहर
था...
बड़े-बुजुर्गों
के मुंह
से सुने
भूत-प्रेत-चुड़ैलों
के दशकों
पुराने किस्से-कहानियों
में ढाईफुटे
सफ़ेद साये
का क़िस्सा
तो जुड़ते
जुड़ते रह
गया लेकिन
क्या मालूम
एक अलग
ही क़िस्सा
जुड़ भी
गया हो
- अंधेरी सर्द
रात में
सुनसान सड़क
से भयानक
अट्टहास के
साथ गुज़रने
वाले प्रेत-पिशाच-ब्रह्मराक्षस
का क़िस्सा,
जिसके गवाह
उस रात
मोहकमपुर गांव
के रजाईयों
में दुबके
हुए लोग
बने थे...
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(मूलत:
फ़ेसबुक पोस्ट - दि. 06
और 08.07.2018 को दो कड़ियों
में प्रकाशित)