"गिरगिटों
की बस्ती"
...............कहानी : शिशिर कृष्ण शर्मा
रात पूरे चांद की थी...!
वो घंटा भर पहले ही तनुज को मिला था|...रिसेप्शन पर रखे सोफ़े के एक कोने में दुबका हुआ, सिमटा हुआ सा|...तनुज ने उसपर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, देता भी क्यों?...ग्रीक देवताओं के से तीखे नैन-नक्श और गठीले, तराशे हुए बदन के इन लम्बे, छरहरे ख़ूबसूरत नौजवानों की भीड़ तो यहां हर रोज़ फ़िल्मी ऑफ़िसों के दरवाज़ों पर, रिसेप्शन पर नज़र आती है...आंखों में तमाम सपने और मन में सिर्फ़ एक सुनहरी मौक़े की हसरत लिए...सो यही ऑफिस कौन सा अलग था!
‘सर वो मीटिंग में हैं...प्लीज़ आप दस मिनट वेट करेंगे?’ – रिसेप्शनिस्ट ने इण्टरकॉम का रिसीवर नीचे रखते हुए कहा| उसकी बनावटी मुस्कान पर थकावट हावी थी| ऑफ़िस का समय ख़त्म हो चुका था|
‘शुक्रिया’!
तनुज जाकर इत्मिनान से सोफ़े पर पसर गया| फ़िल्मी लोगों के ‘मीटिंग में हूं’ और ‘सिर्फ़ दस मिनट’ के जुमलों की असलियत से वो अच्छी तरह वाकिफ़ था| डरे हुए लोग...असुरक्षित...हर लम्हा हलक में अटके हुए कलेजे को क़ाबू में रखने की जद्दोज़हद में जुटे हुए| समय बिताना था, सो उसने जेब से मोबाईल निकाला और मैसेजबॉक्स को टटोलने लगा|
‘सर आप एक्टर हैं?’
तनुज की तंद्रा टूटी| ये प्रश्न उस नौजवान ने किया था|
‘कैसे’?...तनुज ने प्रतिप्रश्न किया| सीधा-सपाट उत्तर देना उसके अहं को मंज़ूर नहीं था|
‘दरअसल आप बहुत देखे हुए से लग रहे हैं...इसीलिए पूछा था’|
किसी अनजान व्यक्ति से संवाद शुरू करने का ये सबसे आसान और बेहतरीन बहाना है कि ‘आपको कहीं देखा है’...और इस झूठ को आप चुनौती भी नहीं दे सकते, तनुज के मन में ये शाश्वत सत्य कौंधा|
‘देखा होगा|...कभीकभार शौकिया एक्टिंग कर लेता हूं|’...’शौकिया’ शब्द का इस्तेमाल तनुज को गर्व का एहसास दिलाता था| सिर्फ़ ‘एक्टर’ शब्द में उसे बेचारगी नज़र आती थी|
‘आप भी यहां शर्लीन से मिलने आए हैं?’
‘शर्लीन...?’ - तनुज को अनजान सा बन जाना बेहतर लगा...
‘कास्टिंग डायरेक्टर’...!
‘नहीं नहीं, किसी और काम से आया हूं’ – तनुज उसकी पूछताछ से खीझने लगा था|
‘मैं दो घंटे से बैठा हूं सर| रिसेप्शनिस्ट ने बोला था शर्लीन बाहर आएगी तो मिल लेना| अभी तक तो आयी नहीं| और अब तो रिसेप्शनिस्ट भी चली गयी|’
‘ये सब ये मुझे क्यों बता रहा है? क्या मुझे नहीं पता यहां का रवैया?’ – सपाट चेहरा लिए तनुज उसकी ओर मुड़ा| वो चाहता था कि नौजवान खुद ही उसकी खीझ और नाख़ुशी को महसूस कर ले| लेकिन वो तो अपनी ही रौ में था|
‘शर्लीन आज फिर से मुझे टाल देगी| हर बार यही होता है|’
उसके चेहरे पर बेचारगी, आंखों में उदासी और आवाज़ में टूटन थी| तनुज ने अपने भीतर कुछ पिघलता सा महसूस किया|
‘हाय तनुज, हाऊ यू?’ - ये शर्लीन थी|
‘एम गुड|’...तनुज ने मुस्कुराने की कोशिश की|
शर्लीन को देखते ही नौजवान उछलकर उसके सामने जा खड़ा हुआ|
‘तुम...क्या नाम बोला था?’
‘आमिर|’
‘या या आमिर...देखो अभी तक तुम्हारे लिए कोई कैरेक्टर नहीं आया...अगले हफ़्ते ट्राय करो न!’
नौजवान सर झुकाकर फ़र्श को ताकने लगा|
‘हां तनुज बोलो...मुझसे काम है?’
‘नहीं, एक दोस्त से मिलना है|’ – तनुज ने अन्दर की तरफ़ इशारा किया| उसे गुस्सा तो बहुत आया, ‘बदतमीज़ छोकरी! अपने बाप से भी उसका नाम लेके बात करती है क्या? ऐ जैक्सन...या ऐ जयकिशन, जो भी नाम होगा बाप का?’...फिर सोचा किस किस को सुधारें, यहां का तो पूरा ढर्रा ही बिगड़ा हुआ है|
‘ओके...बाय...टू मच वर्क|’ – शर्लीन ने दरवाज़ा खोला और ऑफ़िस के भीतर अंतर्ध्यान हो गयी|
‘देखा सर? अगले हफ़्ते फिर से यही होगा|’ उस नौजवान की कातर दृष्टि तनुज के मन को भेदती चली गयी|
‘तुम्हारा नाम आमिर है?’
‘जी सर|’
नहीं...वो आमिर नहीं था...वो कार्तिक था...उसके चेहरे पर कार्तिक का चेहरा उग आया था...तनुज जड़वत उसे ताक रहा था...हां, वो कार्तिक ही था!...तनुज की खीझ कार्तिक के प्रति तरस और ज़िम्मेदारी के मिलेजुले एहसास में तब्दील हो चुकी थी|
‘चलता हूं सर !’ – आमिर ने रूंधे स्वर में कहा|
‘रूको!’– तनुज उठ खड़ा हुआ| उसके मन में आमिर के बारे में जानने और उसे सहारा देने की इच्छा बलवती हो उठी थी|...वो भी आमिर के साथ बाहर निकल आया|
शाम गुज़र चुकी थी...दिसंबर का महीना था...मौसम में गुलाबी ठंडक थी...लिंक रोड नियोन की रोशनियों से सराबोर था| हर तरफ़ अट्टालिकाएं – सितारों की मानिन्द झिलमिलाते हुए बेशुमार दड़बों को खुद में समेटे...सड़क पर दौड़ती देसी-विदेशी गाड़ियां...दमकते हुए शोरूम्स...चमकते हुए साईनबोर्ड... हर तरफ़ चकाचौंध...आसमान में उगा पूनम का चांद उस चकाचौंध के सामने अपनी चमक खो बैठा था|
बदनसीब है ये शहर!...क़ुदरत के इन खूबसूरत नज़ारों का लुत्फ़ उठाना इसके नसीब में ही नहीं!...उन दोनों ने सड़क पार की और जाकर इनफ़िनिटी मॉल के बाहर सीढ़ियों पर बैठ गए|
‘मुम्बई के ही रहने वाले हो?’ तनुज ने पूछा|
‘कोलकाता का हूं सर|’
‘तुम्हारी हिन्दी बहुत साफ़ है?’
‘मेरी स्कूलिंग नासिक में हुई है सर|’
‘यहां कहां रहते हो?’
‘अंधेरी ईस्ट...पम्प हाऊस|’
‘अकेले’?
‘नहीं, अम्मी हैं साथ में|’
‘और पापा?’
वो ख़ामोश हो गया| कुछ लम्हा तनुज को ताकते रहने के बाद उसने सर झुका लिया|
‘क्या हुआ?’
‘पापा नहीं हैं सर|’
‘ओह!...सॉरी!’...तनुज की आंखों के आगे कार्तिक का चेहरा कौंध गया...अपने भीतर के आवेग को उसने बामुश्किल जज़्ब किया|
‘अम्मी बीमार रहती हैं सर...आठ ऑपरेशन हो चुके हैं उनके...|’
तनुज को समझ ही नहीं आया कि उसमें इस लड़के ने ऐसा क्या देखा जो उसके सामने अपना दिल खोलकर रख दिया? ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि इमोशनली ब्लैकमेल करके मुझसे कुछ...?’
‘नहीं! बिलकुल नहीं!’...तनुज ने उस ओछे विचार को दिमाग से झटक दिया... उसे बार-बार आमिर के चेहरे के साथ कार्तिक का चेहरा गड्डमड्ड होता नज़र आ रहा था... ‘नहीं, कार्तिक कभी भी किसी को धोखा नहीं दे सकता|’
‘अम्मी ज़्यादा काम नहीं कर पातीं...घर का काम भी मुझे ही देखना पड़ता है|’.....और इसके आगे उसने जो कुछ कहा उसका निचोड़ ये था कि आमिर और उसकी मां को उसके मामा ने सहारा दिया, आमिर को अपने बच्चे की तरह पाला, उसकी हरेक इच्छा पूरी की, पढ़ने के लिए उसे नासिक के एक नामी बोर्डिंग स्कूल में भेजा, स्कूल के नाटकों से मिली तारीफ़ों ने उसमें आसमान छूने की चाह जगाई और वो मुम्बई चला आया| मामा ने उसे मुम्बई के एक नामी एक्टिंग स्कूल में एडमिशन दिला दिया|
‘उन लोगों ने कहा था कि कोर्स पूरा होने के बाद प्रोड्यूसर-डायरेक्टर खुद ही आकर हमें कास्ट कर लेंगे|...लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ|’
फ़ीस कितनी दी? – तनुज ने पूछा|
‘एक लाख बीस हज़ार|’...आमिर ने सर झुका लिया|
‘लुटेरे!’...तनुज का मन हिकारत से भर उठा...‘ये चकाचौंध...ये चमक दमक...मकड़जाल है ये...झूठ-फ़रेब की बुनियाद पर खड़ी हुई नक़ली दुनिया, जहां हर कदम पर घात लगाए कफ़नखसोट खड़े हैं|’
‘मूर्ख हो तुम...एक्टिंग भी कोई सीखने की चीज़ है?...अगर वो महाशय इतने ही लायक थे तो खुद क्यों नहीं बन गए स्टार?...एक्टिंग की दुकान नहीं चली तो लूटपाट का धंधा शुरू कर दिया?’ – इन अल्फ़ाज़ को जुबां पर ही रोक लेने की कोशिश में तनुज को खुद से बेतरह जूझना पड़ा...वो आमिर के दुःखों में और इज़ाफ़ा नहीं करना चाहता था|
‘मेरे ये कपड़े देख रहे हैं न सर? बाहर पहनने लायक बस यही एक जोड़ी है मेरे पास...ये जींस और ये टीशर्ट...अब घर जाके मैं टीशर्ट धोऊंगा...रोज़ाना ही निकलना पड़ता है मुझे कि कहीं तो कुछ मिले, लेकिन...!’ ...अपने भीतर के ज्वार को रोक पाने की उसकी कोशिश बेमानी साबित हुई|
’तीन महीने से रूम का भाड़ा भी नहीं दिया है सर|’
‘मामा कहां हैं तुम्हारे?’
‘कोलकाता में...पहले वो हर महीने ख़र्चा भेजते थे...लेकिन पिछले चार-पांच महीनों से...’ - आमिर ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी... उसके और तनुज के बीच कुछ क्षणों के लिए मौन पसर गया...तनुज एकटक उसे देखता रहा, आमिर नज़रें चुराता रहा|
‘उनका अपना भी परिवार है, जिम्मेदारियां हैं...कब तक करते रहेंगे वो हमारे लिए?’ – आमिर ने सफ़ाई पेश की|...तनुज उसके जज़्बात को बख़ूबी महसूस कर रहा था...उसके भीतर एक टीस सी उठी और आमिर कार्तिक में तब्दील हो गया !
आमिर कम से कम इतना तो जानता था कि उसे करना क्या है? कार्तिक को तो यही पता नहीं था कि उसे क्या करना और क्या बनना है? अंधेरे में भटक रहा था वो... बदहवास...बौखलाया...बौराया सा...हर तरफ़ हाथ-पांव पटकता हुआ कि कहीं तो कोई सिरा मिले| ये वो दौर था जिससे युवावस्था की दहलीज़ पर खड़े हरेक किशोर को गुज़रना पड़ता है...वो दौर जब हरेक निगाह सवाल करती नज़र आती है कि भविष्य की क्या योजना है? तनुज कार्तिक की छटपटाहट का मूकदर्शक था, मूक इसलिए क्योंकि वो उस तक़लीफ़देह इतिहास को दोहराने के हक़ में कतई नहीं था कि बेटे की ज़िंदगी का फ़ैसला बाप करे, बाप कहे कि साईंस पढ़ो और बाप हुक्म दे कि तुम्हें डॉक्टर या इंजिनियर या फ़ौजी अफ़सर बनना है क्योंकि फ़लांफ़लां के बच्चे डॉक्टर या इंजिनियर या फ़ौजी अफ़सर बन चुके हैं, कुल मिलाकर मध्यमवर्गीय सरकारी कॉलोनियों की विशुद्ध चूहादौड़ वाली सोच जिसमें अपना कुछ नहीं, सब देखादेखी, सब ओढ़ाओढ़ी...और इसीलिए तनुज कार्तिक से सिर्फ़ एक बात कहता आया था, ‘तुम जो चाहते हो करो, बस मैं तुम्हें कोई ग़लत काम नहीं करने दूंगा...अगर जूते सिलने में सुख मिलता हो तो बेझिझक सिलो लेकिन फिर बाटा बन के दिखाओ, मैं तुम्हारा साथ दूंगा|’...और फिर एक रोज़ थकेहारे कार्तिक ने कहा था, पापा मैं भी इसी फ़ील्ड में आ जाऊं?’
‘जहाज़ का पंछी !’...कार्तिक जानता था कि अंतत: यही होगा|...इम्तेहान के दिनों तक में रातरात भर जागकर टी.वी. पर अंग्रेज़ी फ़िल्में देखना, फ़िल्में डाऊनलोड करना, उनकी डीवीडी बनाकर रखना...तनुज ने गुस्से में कई बार कहा भी, ‘अगर यही करना है तो कल के बजाय आज, इसी वक़्त पढ़ाई छोड़ के मैदान में कूद पड़ो...वरना बंद करो ये सब और पढ़ाई पर ध्यान दो!’...और हर बार बेपरवाह सा जवाब मिलता, ‘अरे यार पापा, आप भी न!...अगर कहीं कुछ नहीं हुआ तो ये फ़ील्ड तो खुली हुई है न, कूद पड़ेंगे!...ये कोई सरकारी नौकरी तो है नहीं कि ग्रेजुएशन की डिग्री और इक्कीस से तीस की उम्र होनी चाहिए ?’
‘यार?...कलयुगी औलाद!...बाप को यार कहता है?... मज़ाक़ उड़ाता है बाप का?... बेशर्म!’...खून का घूंट पीकर रह जाता था तनुज|...हर बार सोचता था, ‘कर जो तुझे करना है, अब कभी तेरे मामले में मुंह नहीं खोलूंगा|’...लेकिन आंखों देखी मक्खी निगली भी तो नहीं जाती, कमबख्त मुंह था कि हर बार खुल ही जाता था|
‘इस फ़ील्ड में तो छत्तीस तरह के काम हैं...कौन सा काम करना है?’ – तनुज ने पूछा, हालांकि जवाब वो पहले से जानता था|
‘डायरेक्शन|’
तनुज ने सईद को फोन किया, ‘एक चेला भेज दूं?’
‘फ़ैसला कर लिया साहबज़ादे ने सर?’ – सईद ने हंसते हुए पूछा...वो पहले से ही हालात से वाकिफ़ था|
‘इसके अलावा और करेगा भी क्या ?’ – तनुज ने जवाब दिया|
‘अभी भेज दीजिए सर...फिल्मसिटी में शूट कर रहा हूं...हैलीपैड पर...आज से ही काम शुरू करवा देते हैं|’ – सईद टी.वी. का एक जानामाना नाम था जो कई बड़े धारावाहिक निर्देशित कर चुका था|
राह मिली तो शख्सियत में ठहराव पैदा हुआ...कमाई शुरू हुई तो चालढाल बदल गयी... काम का अनुभव हुआ तो तौरतरीक़ों में आत्मविश्वास झलकने लगा...बच्चे को भंवर से निकालकर सही राह पर ला खड़ा करने की इस सफल कोशिश ने तनुज के भीतर के पिता को असीम संतोष से भर दिया| और अब उसके सामने आमिर खड़ा था...कार्तिक का हमउम्र...उसी के से हालात से जूझता हुआ...बस फ़र्क ये, कि कार्तिक को तब भी पता था और आज भी पता है कि रातबिरात जब भी वो घर पहुंचेगा तो अपनी छत के नीचे मां के हाथ का बना गर्म खाना और तैयार बिस्तर उसका इंतज़ार कर रहा होगा| लेकिन आमिर को तो इन बुनियादी ज़रूरतों तक के लिए जूझना पड़ रहा था|
‘बच्चे की इस हालत को देखकर क्या बीतती होगी असहाय मां के दिल पर?’...कार्तिक के उस बदहवासी भरे दौर में पत्नी की मनोदशा के गवाह रह चुके तनुज को अपना गला रूंधता सा महसूस हुआ| एकाएक उसके भीतर का पिता फिर से ज़िम्मेदारी के उसी एहसास से भर उठा|
‘फ़िलहाल एक्टिंग भूल जाओ !’...अपने इस आदेशात्मक स्वर पर तनुज को खुद ताज्जुब हुआ|
‘जी?’...आमिर के चेहरे पर अविश्वास उमड़ पड़ा|
‘हां!...एक्टिंग तो कभी भी कर लोगे...पहले इस शहर में अपने पैर जमाओ…कोई ऐसा काम पकड़ो जिसमें नियमित आमदनी होती रहे|’
‘लेकिन सर...’ – आमिर का चेहरा बुझ सा गया|
‘इसी फ़ील्ड में!...इससे बाहर जाने को नहीं कह रहा हूं मैं|’...तनुज जानता था, मृगमरीचिका है ये...एक अंतहीन दौड़ जिसमें शामिल दौड़ाक लस्तपस्त हो जाने के बावजूद न तो दौड़ से बाहर होना चाहता है और न ही आख़िरी सांस तक रूकना चाहता है|
‘लेकिन सर ऐसा कौन सा काम है मेरे लिए?’ – आमिर बौखला सा गया था|
‘बहुत कुछ है...मेरी मानोगे तो सब चीज़ें आसान होती चली जाएंगी|’
तनुज चाहता था कि फ़िलहाल आमिर भी वोही राह पकड़े जिसपर चलकर साल भर पहले का बौराया हुआ सा कार्तिक आज एक आत्मविश्वासी नौजवान में तब्दील हो चुका था...वोही बौराया हुआ सा बदहवास कार्तिक साल भर बाद आमिर की शक्ल में आज एक बार फिर से तनुज के सामने सर झुकाए खड़ा था|
‘सुबह घर से निकालोगे तो तुम्हें मंज़िल का पता होगा...चाय-नाश्ता-खाना और डेढ़-दो सौ रूपए रोज़ आने-जाने का मिलेगा...महीने की तनख्वाह अलग...जानपहचान का दायरा बढ़ेगा और एक्टिंग का शौक़ पूरा करने के मौक़े भी कभीकभार मिलते रहेंगे...मन लगाकर काम सीखोगे तो बहुत जल्द असिस्टेंट से डायरेक्टर बन जाओगे...और तब एक्टिंग बहुत छोटी चीज़ लगने लगेगी तुम्हें|’...तनुज की आंखों के सामने कार्तिक का वर्त्तमान जीवंत हो उठा था| आमिर की आंखों में चमक पैदा हुई, हालांकि उस चमक में कहीं अविश्वास का धुंधलका भी था|
‘सर मुझे ये काम मिल जाएगा?’ – आमिर के स्वर में बेताबी थी|
‘क्यों नहीं मिलेगा?...मैं दिलाऊंगा तुम्हें...बस शर्त ये है कि काम में लापरवाही नहीं करोगे|’
‘नहीं सर...बिलकुल नहीं|’
तनुज ने कार्तिक को फोन लगाया| कार्तिक आज उस स्थिति में पहुंच चुका था कि तनुज को किसी सईद की ज़रुरत नहीं रह गयी थी|
उधर से कार्तिक ने फोन काट दिया|
‘लगता है बिज़ी है’... तनुज बड़बड़ाया...आमिर बेसब्री से उसे तकता रहा|
‘एक बात कहूं सर?’
तनुज ने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसे देखा...
‘मैं पांच-छह साल का था जब पापा गुज़रे थे...आप बिलकुल मेरे पापा जैसे दिखते हैं सर|’ –इस महानगर में पहली बार सहारा देते किसी हाथ को अपनी तरफ़ बढ़ता देख वो बेहद भावुक हो उठा था|
‘ओह ! तो इसलिए इस लड़के ने मेरे सामने अपना दिल खोलकर रख दिया?’ तभी उसके मोबाईल की घंटी बजी...ये कार्तिक की कॉल थी...
‘आपने फोन किया था पापा, टेक चल रहा था इसलिए कट करना पड़ा|’...कार्तिक ने सफ़ाई पेश की|
‘सुन, कोई असिस्टेंट की जगह खाली है क्या तुम्हारे यहां?’
‘किसके लिए?’
‘है कोई !’...कहता हुआ तनुज आमिर से थोड़ा दूर हट गया| वो आमिर के बारे में कार्तिक को विस्तार से समझाने लगा...
‘पापा प्लीज़ ज़रा शॉर्ट में...मैं शूट पे हूं...टेक शुरू होने वाला है...’
कार्तिक को घोड़े पर सवार देखकर तनुज ने उसे चंद शब्दों में सबकुछ समझा दिया...आमिर की मां की बीमारी, घर का किराया, पिता का न होना...उसे यक़ीन था कि ये सब सुनकर सईद की तरह कार्तिक भी कहेगा, ‘अभी भेज दो पापा...आज से ही काम शुरू करवा देते हैं|’
‘यार पापा आप भी न!...सारी दुनिया का ठेका ले के बैठ जाते हो...यहां तो आपको ऐसे सैकड़ों घूमते मिलेंगे, किस किस को मुंह लगाओगे?...यार थोड़ा तो प्रैक्टिकल बनो आप|’ – कार्तिक के स्वर में झल्लाहट थी| तनुज के पैरों के नीचे से जैसे ज़मीन खिसक गयी|
‘वो झूठ बोल के सिम्पैथी लेना चाह रहा होगा और आप उसके चक्कर में आ गए...भगाओ उसे|’
‘लेकिन...!’
‘यार टेक शुरू हो रहा है पापा|’ – और कार्तिक ने फोन काट दिया|
‘अपना वक़्त भूल गया ये?...इतना जल्द रंग बदलना सीख लिया?...लेकिन ये संस्कार तो नहीं दिए थे मैंने इसे?’...तनुज के विश्वास को आघात पहुंचा था...और उसका आत्मविश्वास लहूलुहान हो गया था|
स्याह चादर पर टंका कांसे का कटोरा उदास था...दड़बों के पहाड़ों में झिलमिलाती रोशनियों के सितारों को मानों स्याह चादर ने अपने आगोश में ले लिया था...मौसम पर तारी गुलाबी ठंडक एकाएक सिहरन में बदल गयी थी...आमिर के चेहरे पर आने वाले ख़ुशगवार वक़्त की आहट की दमक थी... उसकी आंखों में अब समंदर नहीं सिर्फ़ सितारे थे, पूरी शिद्दत के साथ झिलमिलाते उम्मीदों के सितारे...तमाम तकलीफ़ों और जद्दोज़हद से मुक्ति के सपनों में डूबा हुआ आमिर एकटक तनुज को ताके जा रहा था...
तनुज नज़रें चुराने की कोशिश कर रहा था|...अब समंदर उसकी आंखों में था !
...............कहानी : शिशिर कृष्ण शर्मा
(‘माही
सन्देश’
/ फ़रवरी 2019 में प्रकाशित!)
रात
गहराने लगी
थी…स्याह
चादर पर
टंके कांसे
के कटोरे
की चमक
बुझी हुई
सी थी…चादर
को चूमते
दड़बों के
पहाड़ों में
झिलमिलाती रोशनियों
के सितारे
कहीं ज़्यादा
चमकदार थे...सितारे
उसकी आंखों
के समंदर
में झिलमिला
रहे थे…
रात पूरे चांद की थी...!
वो घंटा भर पहले ही तनुज को मिला था|...रिसेप्शन पर रखे सोफ़े के एक कोने में दुबका हुआ, सिमटा हुआ सा|...तनुज ने उसपर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, देता भी क्यों?...ग्रीक देवताओं के से तीखे नैन-नक्श और गठीले, तराशे हुए बदन के इन लम्बे, छरहरे ख़ूबसूरत नौजवानों की भीड़ तो यहां हर रोज़ फ़िल्मी ऑफ़िसों के दरवाज़ों पर, रिसेप्शन पर नज़र आती है...आंखों में तमाम सपने और मन में सिर्फ़ एक सुनहरी मौक़े की हसरत लिए...सो यही ऑफिस कौन सा अलग था!
‘सर वो मीटिंग में हैं...प्लीज़ आप दस मिनट वेट करेंगे?’ – रिसेप्शनिस्ट ने इण्टरकॉम का रिसीवर नीचे रखते हुए कहा| उसकी बनावटी मुस्कान पर थकावट हावी थी| ऑफ़िस का समय ख़त्म हो चुका था|
‘शुक्रिया’!
तनुज जाकर इत्मिनान से सोफ़े पर पसर गया| फ़िल्मी लोगों के ‘मीटिंग में हूं’ और ‘सिर्फ़ दस मिनट’ के जुमलों की असलियत से वो अच्छी तरह वाकिफ़ था| डरे हुए लोग...असुरक्षित...हर लम्हा हलक में अटके हुए कलेजे को क़ाबू में रखने की जद्दोज़हद में जुटे हुए| समय बिताना था, सो उसने जेब से मोबाईल निकाला और मैसेजबॉक्स को टटोलने लगा|
‘सर आप एक्टर हैं?’
तनुज की तंद्रा टूटी| ये प्रश्न उस नौजवान ने किया था|
‘कैसे’?...तनुज ने प्रतिप्रश्न किया| सीधा-सपाट उत्तर देना उसके अहं को मंज़ूर नहीं था|
‘दरअसल आप बहुत देखे हुए से लग रहे हैं...इसीलिए पूछा था’|
किसी अनजान व्यक्ति से संवाद शुरू करने का ये सबसे आसान और बेहतरीन बहाना है कि ‘आपको कहीं देखा है’...और इस झूठ को आप चुनौती भी नहीं दे सकते, तनुज के मन में ये शाश्वत सत्य कौंधा|
‘देखा होगा|...कभीकभार शौकिया एक्टिंग कर लेता हूं|’...’शौकिया’ शब्द का इस्तेमाल तनुज को गर्व का एहसास दिलाता था| सिर्फ़ ‘एक्टर’ शब्द में उसे बेचारगी नज़र आती थी|
‘आप भी यहां शर्लीन से मिलने आए हैं?’
‘शर्लीन...?’ - तनुज को अनजान सा बन जाना बेहतर लगा...
‘कास्टिंग डायरेक्टर’...!
‘नहीं नहीं, किसी और काम से आया हूं’ – तनुज उसकी पूछताछ से खीझने लगा था|
‘मैं दो घंटे से बैठा हूं सर| रिसेप्शनिस्ट ने बोला था शर्लीन बाहर आएगी तो मिल लेना| अभी तक तो आयी नहीं| और अब तो रिसेप्शनिस्ट भी चली गयी|’
‘ये सब ये मुझे क्यों बता रहा है? क्या मुझे नहीं पता यहां का रवैया?’ – सपाट चेहरा लिए तनुज उसकी ओर मुड़ा| वो चाहता था कि नौजवान खुद ही उसकी खीझ और नाख़ुशी को महसूस कर ले| लेकिन वो तो अपनी ही रौ में था|
‘शर्लीन आज फिर से मुझे टाल देगी| हर बार यही होता है|’
उसके चेहरे पर बेचारगी, आंखों में उदासी और आवाज़ में टूटन थी| तनुज ने अपने भीतर कुछ पिघलता सा महसूस किया|
‘हाय तनुज, हाऊ यू?’ - ये शर्लीन थी|
‘एम गुड|’...तनुज ने मुस्कुराने की कोशिश की|
शर्लीन को देखते ही नौजवान उछलकर उसके सामने जा खड़ा हुआ|
‘तुम...क्या नाम बोला था?’
‘आमिर|’
‘या या आमिर...देखो अभी तक तुम्हारे लिए कोई कैरेक्टर नहीं आया...अगले हफ़्ते ट्राय करो न!’
नौजवान सर झुकाकर फ़र्श को ताकने लगा|
‘हां तनुज बोलो...मुझसे काम है?’
‘नहीं, एक दोस्त से मिलना है|’ – तनुज ने अन्दर की तरफ़ इशारा किया| उसे गुस्सा तो बहुत आया, ‘बदतमीज़ छोकरी! अपने बाप से भी उसका नाम लेके बात करती है क्या? ऐ जैक्सन...या ऐ जयकिशन, जो भी नाम होगा बाप का?’...फिर सोचा किस किस को सुधारें, यहां का तो पूरा ढर्रा ही बिगड़ा हुआ है|
‘ओके...बाय...टू मच वर्क|’ – शर्लीन ने दरवाज़ा खोला और ऑफ़िस के भीतर अंतर्ध्यान हो गयी|
‘देखा सर? अगले हफ़्ते फिर से यही होगा|’ उस नौजवान की कातर दृष्टि तनुज के मन को भेदती चली गयी|
‘तुम्हारा नाम आमिर है?’
‘जी सर|’
नहीं...वो आमिर नहीं था...वो कार्तिक था...उसके चेहरे पर कार्तिक का चेहरा उग आया था...तनुज जड़वत उसे ताक रहा था...हां, वो कार्तिक ही था!...तनुज की खीझ कार्तिक के प्रति तरस और ज़िम्मेदारी के मिलेजुले एहसास में तब्दील हो चुकी थी|
‘चलता हूं सर !’ – आमिर ने रूंधे स्वर में कहा|
‘रूको!’– तनुज उठ खड़ा हुआ| उसके मन में आमिर के बारे में जानने और उसे सहारा देने की इच्छा बलवती हो उठी थी|...वो भी आमिर के साथ बाहर निकल आया|
शाम गुज़र चुकी थी...दिसंबर का महीना था...मौसम में गुलाबी ठंडक थी...लिंक रोड नियोन की रोशनियों से सराबोर था| हर तरफ़ अट्टालिकाएं – सितारों की मानिन्द झिलमिलाते हुए बेशुमार दड़बों को खुद में समेटे...सड़क पर दौड़ती देसी-विदेशी गाड़ियां...दमकते हुए शोरूम्स...चमकते हुए साईनबोर्ड... हर तरफ़ चकाचौंध...आसमान में उगा पूनम का चांद उस चकाचौंध के सामने अपनी चमक खो बैठा था|
बदनसीब है ये शहर!...क़ुदरत के इन खूबसूरत नज़ारों का लुत्फ़ उठाना इसके नसीब में ही नहीं!...उन दोनों ने सड़क पार की और जाकर इनफ़िनिटी मॉल के बाहर सीढ़ियों पर बैठ गए|
‘मुम्बई के ही रहने वाले हो?’ तनुज ने पूछा|
‘कोलकाता का हूं सर|’
‘तुम्हारी हिन्दी बहुत साफ़ है?’
‘मेरी स्कूलिंग नासिक में हुई है सर|’
‘यहां कहां रहते हो?’
‘अंधेरी ईस्ट...पम्प हाऊस|’
‘अकेले’?
‘नहीं, अम्मी हैं साथ में|’
‘और पापा?’
वो ख़ामोश हो गया| कुछ लम्हा तनुज को ताकते रहने के बाद उसने सर झुका लिया|
‘क्या हुआ?’
‘पापा नहीं हैं सर|’
‘ओह!...सॉरी!’...तनुज की आंखों के आगे कार्तिक का चेहरा कौंध गया...अपने भीतर के आवेग को उसने बामुश्किल जज़्ब किया|
‘अम्मी बीमार रहती हैं सर...आठ ऑपरेशन हो चुके हैं उनके...|’
तनुज को समझ ही नहीं आया कि उसमें इस लड़के ने ऐसा क्या देखा जो उसके सामने अपना दिल खोलकर रख दिया? ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि इमोशनली ब्लैकमेल करके मुझसे कुछ...?’
‘नहीं! बिलकुल नहीं!’...तनुज ने उस ओछे विचार को दिमाग से झटक दिया... उसे बार-बार आमिर के चेहरे के साथ कार्तिक का चेहरा गड्डमड्ड होता नज़र आ रहा था... ‘नहीं, कार्तिक कभी भी किसी को धोखा नहीं दे सकता|’
‘अम्मी ज़्यादा काम नहीं कर पातीं...घर का काम भी मुझे ही देखना पड़ता है|’.....और इसके आगे उसने जो कुछ कहा उसका निचोड़ ये था कि आमिर और उसकी मां को उसके मामा ने सहारा दिया, आमिर को अपने बच्चे की तरह पाला, उसकी हरेक इच्छा पूरी की, पढ़ने के लिए उसे नासिक के एक नामी बोर्डिंग स्कूल में भेजा, स्कूल के नाटकों से मिली तारीफ़ों ने उसमें आसमान छूने की चाह जगाई और वो मुम्बई चला आया| मामा ने उसे मुम्बई के एक नामी एक्टिंग स्कूल में एडमिशन दिला दिया|
‘उन लोगों ने कहा था कि कोर्स पूरा होने के बाद प्रोड्यूसर-डायरेक्टर खुद ही आकर हमें कास्ट कर लेंगे|...लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ|’
फ़ीस कितनी दी? – तनुज ने पूछा|
‘एक लाख बीस हज़ार|’...आमिर ने सर झुका लिया|
‘लुटेरे!’...तनुज का मन हिकारत से भर उठा...‘ये चकाचौंध...ये चमक दमक...मकड़जाल है ये...झूठ-फ़रेब की बुनियाद पर खड़ी हुई नक़ली दुनिया, जहां हर कदम पर घात लगाए कफ़नखसोट खड़े हैं|’
‘मूर्ख हो तुम...एक्टिंग भी कोई सीखने की चीज़ है?...अगर वो महाशय इतने ही लायक थे तो खुद क्यों नहीं बन गए स्टार?...एक्टिंग की दुकान नहीं चली तो लूटपाट का धंधा शुरू कर दिया?’ – इन अल्फ़ाज़ को जुबां पर ही रोक लेने की कोशिश में तनुज को खुद से बेतरह जूझना पड़ा...वो आमिर के दुःखों में और इज़ाफ़ा नहीं करना चाहता था|
‘मेरे ये कपड़े देख रहे हैं न सर? बाहर पहनने लायक बस यही एक जोड़ी है मेरे पास...ये जींस और ये टीशर्ट...अब घर जाके मैं टीशर्ट धोऊंगा...रोज़ाना ही निकलना पड़ता है मुझे कि कहीं तो कुछ मिले, लेकिन...!’ ...अपने भीतर के ज्वार को रोक पाने की उसकी कोशिश बेमानी साबित हुई|
’तीन महीने से रूम का भाड़ा भी नहीं दिया है सर|’
‘मामा कहां हैं तुम्हारे?’
‘कोलकाता में...पहले वो हर महीने ख़र्चा भेजते थे...लेकिन पिछले चार-पांच महीनों से...’ - आमिर ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी... उसके और तनुज के बीच कुछ क्षणों के लिए मौन पसर गया...तनुज एकटक उसे देखता रहा, आमिर नज़रें चुराता रहा|
‘उनका अपना भी परिवार है, जिम्मेदारियां हैं...कब तक करते रहेंगे वो हमारे लिए?’ – आमिर ने सफ़ाई पेश की|...तनुज उसके जज़्बात को बख़ूबी महसूस कर रहा था...उसके भीतर एक टीस सी उठी और आमिर कार्तिक में तब्दील हो गया !
आमिर कम से कम इतना तो जानता था कि उसे करना क्या है? कार्तिक को तो यही पता नहीं था कि उसे क्या करना और क्या बनना है? अंधेरे में भटक रहा था वो... बदहवास...बौखलाया...बौराया सा...हर तरफ़ हाथ-पांव पटकता हुआ कि कहीं तो कोई सिरा मिले| ये वो दौर था जिससे युवावस्था की दहलीज़ पर खड़े हरेक किशोर को गुज़रना पड़ता है...वो दौर जब हरेक निगाह सवाल करती नज़र आती है कि भविष्य की क्या योजना है? तनुज कार्तिक की छटपटाहट का मूकदर्शक था, मूक इसलिए क्योंकि वो उस तक़लीफ़देह इतिहास को दोहराने के हक़ में कतई नहीं था कि बेटे की ज़िंदगी का फ़ैसला बाप करे, बाप कहे कि साईंस पढ़ो और बाप हुक्म दे कि तुम्हें डॉक्टर या इंजिनियर या फ़ौजी अफ़सर बनना है क्योंकि फ़लांफ़लां के बच्चे डॉक्टर या इंजिनियर या फ़ौजी अफ़सर बन चुके हैं, कुल मिलाकर मध्यमवर्गीय सरकारी कॉलोनियों की विशुद्ध चूहादौड़ वाली सोच जिसमें अपना कुछ नहीं, सब देखादेखी, सब ओढ़ाओढ़ी...और इसीलिए तनुज कार्तिक से सिर्फ़ एक बात कहता आया था, ‘तुम जो चाहते हो करो, बस मैं तुम्हें कोई ग़लत काम नहीं करने दूंगा...अगर जूते सिलने में सुख मिलता हो तो बेझिझक सिलो लेकिन फिर बाटा बन के दिखाओ, मैं तुम्हारा साथ दूंगा|’...और फिर एक रोज़ थकेहारे कार्तिक ने कहा था, पापा मैं भी इसी फ़ील्ड में आ जाऊं?’
‘जहाज़ का पंछी !’...कार्तिक जानता था कि अंतत: यही होगा|...इम्तेहान के दिनों तक में रातरात भर जागकर टी.वी. पर अंग्रेज़ी फ़िल्में देखना, फ़िल्में डाऊनलोड करना, उनकी डीवीडी बनाकर रखना...तनुज ने गुस्से में कई बार कहा भी, ‘अगर यही करना है तो कल के बजाय आज, इसी वक़्त पढ़ाई छोड़ के मैदान में कूद पड़ो...वरना बंद करो ये सब और पढ़ाई पर ध्यान दो!’...और हर बार बेपरवाह सा जवाब मिलता, ‘अरे यार पापा, आप भी न!...अगर कहीं कुछ नहीं हुआ तो ये फ़ील्ड तो खुली हुई है न, कूद पड़ेंगे!...ये कोई सरकारी नौकरी तो है नहीं कि ग्रेजुएशन की डिग्री और इक्कीस से तीस की उम्र होनी चाहिए ?’
‘यार?...कलयुगी औलाद!...बाप को यार कहता है?... मज़ाक़ उड़ाता है बाप का?... बेशर्म!’...खून का घूंट पीकर रह जाता था तनुज|...हर बार सोचता था, ‘कर जो तुझे करना है, अब कभी तेरे मामले में मुंह नहीं खोलूंगा|’...लेकिन आंखों देखी मक्खी निगली भी तो नहीं जाती, कमबख्त मुंह था कि हर बार खुल ही जाता था|
‘इस फ़ील्ड में तो छत्तीस तरह के काम हैं...कौन सा काम करना है?’ – तनुज ने पूछा, हालांकि जवाब वो पहले से जानता था|
‘डायरेक्शन|’
तनुज ने सईद को फोन किया, ‘एक चेला भेज दूं?’
‘फ़ैसला कर लिया साहबज़ादे ने सर?’ – सईद ने हंसते हुए पूछा...वो पहले से ही हालात से वाकिफ़ था|
‘इसके अलावा और करेगा भी क्या ?’ – तनुज ने जवाब दिया|
‘अभी भेज दीजिए सर...फिल्मसिटी में शूट कर रहा हूं...हैलीपैड पर...आज से ही काम शुरू करवा देते हैं|’ – सईद टी.वी. का एक जानामाना नाम था जो कई बड़े धारावाहिक निर्देशित कर चुका था|
राह मिली तो शख्सियत में ठहराव पैदा हुआ...कमाई शुरू हुई तो चालढाल बदल गयी... काम का अनुभव हुआ तो तौरतरीक़ों में आत्मविश्वास झलकने लगा...बच्चे को भंवर से निकालकर सही राह पर ला खड़ा करने की इस सफल कोशिश ने तनुज के भीतर के पिता को असीम संतोष से भर दिया| और अब उसके सामने आमिर खड़ा था...कार्तिक का हमउम्र...उसी के से हालात से जूझता हुआ...बस फ़र्क ये, कि कार्तिक को तब भी पता था और आज भी पता है कि रातबिरात जब भी वो घर पहुंचेगा तो अपनी छत के नीचे मां के हाथ का बना गर्म खाना और तैयार बिस्तर उसका इंतज़ार कर रहा होगा| लेकिन आमिर को तो इन बुनियादी ज़रूरतों तक के लिए जूझना पड़ रहा था|
‘बच्चे की इस हालत को देखकर क्या बीतती होगी असहाय मां के दिल पर?’...कार्तिक के उस बदहवासी भरे दौर में पत्नी की मनोदशा के गवाह रह चुके तनुज को अपना गला रूंधता सा महसूस हुआ| एकाएक उसके भीतर का पिता फिर से ज़िम्मेदारी के उसी एहसास से भर उठा|
‘फ़िलहाल एक्टिंग भूल जाओ !’...अपने इस आदेशात्मक स्वर पर तनुज को खुद ताज्जुब हुआ|
‘जी?’...आमिर के चेहरे पर अविश्वास उमड़ पड़ा|
‘हां!...एक्टिंग तो कभी भी कर लोगे...पहले इस शहर में अपने पैर जमाओ…कोई ऐसा काम पकड़ो जिसमें नियमित आमदनी होती रहे|’
‘लेकिन सर...’ – आमिर का चेहरा बुझ सा गया|
‘इसी फ़ील्ड में!...इससे बाहर जाने को नहीं कह रहा हूं मैं|’...तनुज जानता था, मृगमरीचिका है ये...एक अंतहीन दौड़ जिसमें शामिल दौड़ाक लस्तपस्त हो जाने के बावजूद न तो दौड़ से बाहर होना चाहता है और न ही आख़िरी सांस तक रूकना चाहता है|
‘लेकिन सर ऐसा कौन सा काम है मेरे लिए?’ – आमिर बौखला सा गया था|
‘बहुत कुछ है...मेरी मानोगे तो सब चीज़ें आसान होती चली जाएंगी|’
तनुज चाहता था कि फ़िलहाल आमिर भी वोही राह पकड़े जिसपर चलकर साल भर पहले का बौराया हुआ सा कार्तिक आज एक आत्मविश्वासी नौजवान में तब्दील हो चुका था...वोही बौराया हुआ सा बदहवास कार्तिक साल भर बाद आमिर की शक्ल में आज एक बार फिर से तनुज के सामने सर झुकाए खड़ा था|
‘सुबह घर से निकालोगे तो तुम्हें मंज़िल का पता होगा...चाय-नाश्ता-खाना और डेढ़-दो सौ रूपए रोज़ आने-जाने का मिलेगा...महीने की तनख्वाह अलग...जानपहचान का दायरा बढ़ेगा और एक्टिंग का शौक़ पूरा करने के मौक़े भी कभीकभार मिलते रहेंगे...मन लगाकर काम सीखोगे तो बहुत जल्द असिस्टेंट से डायरेक्टर बन जाओगे...और तब एक्टिंग बहुत छोटी चीज़ लगने लगेगी तुम्हें|’...तनुज की आंखों के सामने कार्तिक का वर्त्तमान जीवंत हो उठा था| आमिर की आंखों में चमक पैदा हुई, हालांकि उस चमक में कहीं अविश्वास का धुंधलका भी था|
‘सर मुझे ये काम मिल जाएगा?’ – आमिर के स्वर में बेताबी थी|
‘क्यों नहीं मिलेगा?...मैं दिलाऊंगा तुम्हें...बस शर्त ये है कि काम में लापरवाही नहीं करोगे|’
‘नहीं सर...बिलकुल नहीं|’
तनुज ने कार्तिक को फोन लगाया| कार्तिक आज उस स्थिति में पहुंच चुका था कि तनुज को किसी सईद की ज़रुरत नहीं रह गयी थी|
उधर से कार्तिक ने फोन काट दिया|
‘लगता है बिज़ी है’... तनुज बड़बड़ाया...आमिर बेसब्री से उसे तकता रहा|
‘एक बात कहूं सर?’
तनुज ने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसे देखा...
‘मैं पांच-छह साल का था जब पापा गुज़रे थे...आप बिलकुल मेरे पापा जैसे दिखते हैं सर|’ –इस महानगर में पहली बार सहारा देते किसी हाथ को अपनी तरफ़ बढ़ता देख वो बेहद भावुक हो उठा था|
‘ओह ! तो इसलिए इस लड़के ने मेरे सामने अपना दिल खोलकर रख दिया?’ तभी उसके मोबाईल की घंटी बजी...ये कार्तिक की कॉल थी...
‘आपने फोन किया था पापा, टेक चल रहा था इसलिए कट करना पड़ा|’...कार्तिक ने सफ़ाई पेश की|
‘सुन, कोई असिस्टेंट की जगह खाली है क्या तुम्हारे यहां?’
‘किसके लिए?’
‘है कोई !’...कहता हुआ तनुज आमिर से थोड़ा दूर हट गया| वो आमिर के बारे में कार्तिक को विस्तार से समझाने लगा...
‘पापा प्लीज़ ज़रा शॉर्ट में...मैं शूट पे हूं...टेक शुरू होने वाला है...’
कार्तिक को घोड़े पर सवार देखकर तनुज ने उसे चंद शब्दों में सबकुछ समझा दिया...आमिर की मां की बीमारी, घर का किराया, पिता का न होना...उसे यक़ीन था कि ये सब सुनकर सईद की तरह कार्तिक भी कहेगा, ‘अभी भेज दो पापा...आज से ही काम शुरू करवा देते हैं|’
‘यार पापा आप भी न!...सारी दुनिया का ठेका ले के बैठ जाते हो...यहां तो आपको ऐसे सैकड़ों घूमते मिलेंगे, किस किस को मुंह लगाओगे?...यार थोड़ा तो प्रैक्टिकल बनो आप|’ – कार्तिक के स्वर में झल्लाहट थी| तनुज के पैरों के नीचे से जैसे ज़मीन खिसक गयी|
‘वो झूठ बोल के सिम्पैथी लेना चाह रहा होगा और आप उसके चक्कर में आ गए...भगाओ उसे|’
‘लेकिन...!’
‘यार टेक शुरू हो रहा है पापा|’ – और कार्तिक ने फोन काट दिया|
‘अपना वक़्त भूल गया ये?...इतना जल्द रंग बदलना सीख लिया?...लेकिन ये संस्कार तो नहीं दिए थे मैंने इसे?’...तनुज के विश्वास को आघात पहुंचा था...और उसका आत्मविश्वास लहूलुहान हो गया था|
स्याह चादर पर टंका कांसे का कटोरा उदास था...दड़बों के पहाड़ों में झिलमिलाती रोशनियों के सितारों को मानों स्याह चादर ने अपने आगोश में ले लिया था...मौसम पर तारी गुलाबी ठंडक एकाएक सिहरन में बदल गयी थी...आमिर के चेहरे पर आने वाले ख़ुशगवार वक़्त की आहट की दमक थी... उसकी आंखों में अब समंदर नहीं सिर्फ़ सितारे थे, पूरी शिद्दत के साथ झिलमिलाते उम्मीदों के सितारे...तमाम तकलीफ़ों और जद्दोज़हद से मुक्ति के सपनों में डूबा हुआ आमिर एकटक तनुज को ताके जा रहा था...
तनुज नज़रें चुराने की कोशिश कर रहा था|...अब समंदर उसकी आंखों में था !
.....................................................................गिरगिटों
की बस्ती/
शिशिर कृष्ण
शर्मा
(‘माही सन्देश’ / फ़रवरी 2019 में प्रकाशित!)
फ़िल्मी दुनिया के अंदर झांकती हुई कहानी है
ReplyDeleteफ़िल्मी दुनिया का अंग बनते ही बहुत से लोग इसका रंग भी अपना लेते हैं. शुक्र है कि इक्का दुक्का सईद भी मिल जाते हैं भाग्यवानो को. तकदीर भी कुछ किरदार निभाती है किसी इंसान की ज़िन्दगी में, इससे इंकार नहीं किया जा सकता. और गिरगिट समाज के चप्पे चप्पे पर छाये हुए हैं. पर फ़िल्मी दुनिया में ज़्यादा हैं क्यों कि यहां हर कोई या ज़्यादातर लोग खुद के खो जाने के भय से डरे हुए रहते होंगे, ऐसा मेरा मानना है.
लेकिन इस कहानी में मुझे आमिर के अपने सुनहरे भविष्य को सोच कर दमकते चेहरे से बहुत डर लगा, बनिस्बत उसकी आँखों के समंदर को तनुज की आँखों में स्थानांतरित होने के.
और आज के हर शहर के बारे में इस कहानी की ये पंक्तियाँ लागू होती हैं :-
"बदनसीब है ये शहर!...क़ुदरत के इन खूबसूरत नज़ारों का लुत्फ़ उठाना इसके नसीब में ही नहीं!.."
अगली कहानी की प्रतीक्षा में