"कर्ज़ का बोझ"
.....................शिशिर कृष्ण शर्मा
पिछले
कुछ दिनों
से मन
बेहद उद्विग्न
था...भीतर
कहीं बस
यही रस्साकशी
चल रही
थी कि
जैसे भी
हो, मुझे
देहल साहब
से मिलना
है, हालांकि
मन में
एक आशंका
भी थी
कि इतने
बरसों बाद
पता नहीं
वो मुझे
पहचान भी
पाएंगे या
नहीं|
चौथाई
सदी पहले
ट्रांसफ़र मांगकर
जब इस
महानगर में
कदम रखा
था तो
सिर्फ़ दो
चीज़ें साथ
लेकर आया
था, पंजाब
नेशनल बैंक
की नौकरी
और कपड़ों
का एक
सूटकेस| अनजाना
सा शहर...न
रास्तों का
पता, न
दिशाओं का...न
रहने का
ठिकाना, न
खाने का...न
जान न
पहचान...हर
तरफ़ अथाह
भीड़, अजनबी
से चेहरे...और
चेहरों के
उस समंदर
के बीच
मेरा अकेलापन...मुझे
विलेपार्ले
(पश्चिम)
में, जुहू
स्कीम के
एन.एस.रोड
8 पर स्थित
बैंक की
शाखा में
पोस्टिंग मिली
थी...
जुहू
स्कीम यानि
बीते दौर
के बी.एम.व्यास,
स्मृति बिस्वास,
मन्ना डे,
अंजु महेन्द्रू
से लेकर
अमिताभ, धर्मेन्द्र,
हेमा, शत्रुघ्न
सिन्हा, मनोज
कुमार, डैनी,
राकेश रोशन,
यश चोपड़ा,
लक्ष्मीकांत
(प्यारेलाल)
और सुजीत
कुमार जैसी
फ़िल्मी हस्तियों
की रिहाईश
का केंद्र|
विशाल बंगले...बहुमंज़िली
आधुनिक इमारतें...सड़कों
पर दौड़ती
देसी-विदेशी
गाड़ियां...हर
तरफ़ चकाचौंध|
ये जादुई
नज़ारे छोटे
शहर के
अपने ही
सुखों और
इत्मिनान भरी
ज़िंदगी, पारिवारिक-सामाजिक
सुरक्षा और
पत्नी-बच्चों,
नाते-रिश्तेदारों,
मित्र-परिचितों
को पीछे
छोड़ इस
महानगर में
नए-नए
आए मुझ
जैसे शख्स
के भीतर
बौनेपन का
एहसास जगा
देने के
लिए पर्याप्त
थे...
और बौनेपन,
अकेलेपन और
असुरक्षा के
उस डरावने
एहसास के
बीच मेरी
निगाहें हरदम
अपनों की,
अपनेपन की
तलाश में
भटकती रहती
थीं...
बुज़ुर्ग
देहल साहब
इस महानगर
में वो
पहले शख्स
थे जिन्होंने
खुद ही
मेरी तरफ़
हाथ बढ़ाया
था| वो
हाथ दोस्ती
का नहीं
था...बल्कि
वो हाथ
था, ‘पितृतुल्य
स्नेह’
का...देहल
साहब बैंक
के पुराने
ग्राहक थे
जिनका कमोबेश
रोज़ाना ही
हमारी शाखा
में आना-जाना
होता था|
वो शायद
पहली ही
नज़र में
ताड़ गए
थे कि
मैं इस
शहर में
नया नया
आया हूं,
उत्तर भारतीय
हूं, लेकिन
यूपी-बिहार
का नहीं
बल्कि
- मुम्बई की
भाषा में
– ‘दिल्ली साइड
का’
हूं| उन्होंने
मुझे अपने
ऑफ़िस में
आने का
न्यौता दिया
जो बैंक
से बामुश्किल
पौन किलोमीटर
दूर, जुहू
चर्च रोड
पर स्थित
एक बहुमंज़िली
इमारत में
था...और
फिर मेरी
शामें अक्सर
देहल साहब
के ऑफ़िस
में उनके
साथ बातों
में गुज़रने
लगीं...मितभाषी,
मृदुभाषी, ज़मीन
से जुड़े
शख्स...उनकी
विनम्रता ने
मुझे कभी
भी उनकी
प्रभावशाली पृष्ठभूमि
का एहसास
नहीं होने
दिया|
समय
के साथ
साथ मेरी
जान-पहचान
का दायरा
बढ़ता गया...इस
महानगर में
मेरे पैर
जमते चले
गए...साल
भर बाद
पत्नी-बच्चों
को भी
मुम्बई बुला
लिया...ज़िम्मेदारियां
बढ़ीं तो
प्राथमिकताएं बदल
गयीं...लेकिन
देहल साहब
के साथ
समय बिताने
का सिलसिला
कायम रहा...
कभी-कभार
उनके ऑफ़िस
के क़रीब
ही स्थित
उनके घर
पर भी
आनाजाना होने
लगा...उनकी
पत्नी, बेटियों,
दामाद से
परिचय हुआ...घर
के मुखिया
की ही
तरह घर
के तमाम
सदस्य भी
सभ्य-सुसंस्कृत-विनम्र,
ज़मीन से
जुड़े हुए...कहीं
कोई दिखावा
नहीं...कोई
बनावटीपन नहीं...बहुत
अच्छा लगता
था सबसे
मिलकर...ज़रा
भी एहसास
नहीं होता
था कि
ये वो
परिवार है
जो ‘प्रतिज्ञा’,
‘दिल्लगी’,
‘बेताब’,
‘सितमगर’
और ‘यतीम’
जैसी फ़िल्मों
का निर्माण
कर चुका
है और
जिनकी उन
दिनों ‘तू
चोर मैं
सिपाही’
निर्माणाधीन थी...धरम
जी के
सगे बहन-बहनोई-भांजियों
वाला देहल
परिवार...बिक्रमसिंह
देहल और
उनका परिवार...
क़रीब
साढ़े तीन
साल बाद
जुहू स्कीम
शाखा से
मेरा तबादला
दक्षिण मुम्बई
की, सी.एस.टी.
- आर.बी.आई.
के इलाक़े
में स्थित
इलैको हाऊस
शाखा में
हो गया|
दूरियां बढ़ीं
तो सुबह-शाम
का मेरा
ख़ासा समय
लोकल ट्रेन
में कटने
लगा| ऐसे
में देहल
साहब से
मुलाक़ातों का
सिलसिला भी
टूट ही
गया| एक
रोज़ समय
निकालकर मैं
उनके ऑफ़िस
पहुंचा तो
पता चला
वो जगह
किराए पर
दे दी
गयी थी|
फिर कुछ
महीनों बाद
देहल साहब
से फोन
पर बात
हुई, एक-दूसरे
की कुशलक्षेम
पूछी गयी...लेकिन
उसके बाद
संपर्क पूरी
तरह टूट
गया| उधर
इलैको हाऊस
में सालभर
गुज़ारने के
बाद मैंने
स्पेशल वी.आर.एस.
लेकर बैंक
को अलविदा
कह दिया...
क़रीब
महिनाभर पहले
गीतकार सुधाकर
शर्मा जी
से पता
चला कि
कुछ साल
पहले देहल
साहब की
पत्नी का
निधन हो
गया था
तो अनायास
ही मन
उद्वेलित हो
उठा| सुधाकर
जी ने
ये भी
बताया कि
वो साल-डेढ़
साल पहले
तक देहल
साहब के
संपर्क में
थे तो
मन देहल
साहब की
ओर भागने
लगा| ’क्या
भूलूं क्या
याद करूं’
और ‘बीते
हुए दिन’
के सिलसिले
में बेशुमार
भूली-बिसरी
रिटायर्ड बुज़ुर्ग
फ़िल्मी हस्तियों
से हुई
मुलाक़ातों के
दौरान, जीवनसाथी
के बिछुड़
जाने से
उपजे अकेलेपन
के दर्द
को मैं
बहुत अच्छी
तरह समझने
लगा था...
इसलिए मन
में बस
अब एक
ही बात
थी कि
जब मैं
अकेला था
तो देहल
साहब ने
नि:स्वार्थ
भाव से
मेरी ओर
हाथ बढ़ाया
था...आज
वो अकेले
हैं तो
मेरा फ़र्ज़
बनता है
कि मैं
उनका वो
कर्ज़ चुकाऊं,
उनसे मिलूं,
उनके साथ
समय बिताऊं,
उनके मन
की सुनूं,
बीस बरस
बाद अचानक
मेरा इस
तरह आकर
उनसे मिलना
निश्चित तौर
पर उन्हें
बहुत ख़ुशी
देगा, और
उनकी वो
ख़ुशी मेरे
लिए अनमोल
होगी...
मैंने पुरानी
डायरियों में
से तलाशकर
उनके ऑफ़िस
और घर
के नंबरों
पर बात
करनी चाही
तो दोनों
ही लैंडलाइन
नंबरों के
‘अस्तित्व में
नहीं’
होने की
सूचना मिली...थोड़ी-बहुत
तलाश के
बाद फ़ेसबुक
पर उनकी
छोटी बेटी
का प्रोफ़ाइल
नज़र आया...उन्हें
अपना परिचय
देते हुए
मैसेज भेजा
कि जैसे
भी हो
कृपया देहल
साहब से
मेरी बात
करा दें,
लेकिन दिन
बीतते रहे
और उन्होंने
मैसेज देखा
ही नहीं...आख़िर
कुछ रोज़
पहले मैं
देहल साहब
से मिलने
के लिए
घर से
निकल ही
पड़ा...
बिना
पूर्वसूचना के
अचानक एक
परिवार वाले
व्यक्ति के
घर पहुंच
जाना चूंकि
उचित नहीं
था इसलिए
पहले मैं
देहल साहब
के ऑफ़िस
गया ताकि
वहां जो
कोई भी
मिले उससे
देहल साहब
के बारे
में जानकारी
हासिल कर
सकूं...लेकिन
बिल्डिंग के
गेट पर
ही वॉचमैन
से पता
चला कि
पिछले तीन
महीनों से
ऑफ़िस ख़ाली
पड़ा है
और उसमें
ताला लगा
हुआ है...ऐसे
में मेरे
कदम देहल
साहब के
घर की
ओर उठ
ही गए,
इसके अलावा
और कोई
विकल्प ही
नहीं था
मेरे पास...
शाम
गहराने लगी
थी...मुझे
उम्मीद थी
कि तमाम
बड़े-बुज़ुर्गों
की तरह
शायद देहल
साहब भी
इस वक़्त
बिल्डिंग के
नीचे ही
बैठे या
चहलकदमी करते
मिल जाएं...मेनगेट
पर तैनात
गार्ड से
मैंने देहल
साहब से
मिलने की
इच्छा जताई
तो जो
जवाब मिला,
उसे सुनकर
मेरे लिए
खड़ा रह
पाना मुश्किल
हो गया...पांव
लड़खड़ाने लगे
और दिल
डूबता हुआ
सा महसूस
हुआ...मैंने
गार्ड से
आग्रह किया
कि वो
मुझे देहल
साहब के
घर तक
पहुंचा दे...
दरवाज़ा
उनकी बड़ी
बेटी ने
खोला...और
वो मुझे
देखते ही
पहचान गयीं|
मेरे मुंह
से सिर्फ़
इतना निकला
कि देहल
साहब नहीं
रहे? और
फिर मेरा
गला रूंध
गया...वो
मुझे घर
के भीतर
ले गयीं,
ड्राईंगरूम में
बैठाया लेकिन
लाख कोशिशों
के बाद
भी मैं
ख़ुद को
संयत नहीं
रख पाया...रूंधे
गले से
मैंने उन्हें
टूटते-अटकते
शब्दों में
अपने मन
की सारी
बातें बताईं...मैंने
उनसे कहा
कि अब
तक मैं
पारिवारिक जिम्मेदारियों
में उलझा
रहा...अब
जाकर अपने
लिए समय
मिला तो
तमाम पुरानी
यादें फिर
से ताज़ा
होने लगीं...और
उन यादों
में सबसे
ऊपर थे
देहल साहब
के साथ
बिताए वो
दिन...
उन्होंने जो
सहारा उस
ज़माने में
मुझे दिया
था, आज
मैं उस
कर्ज़ को
उतारने के
लिए आया
था...लेकिन
मैंने बहुत
देर कर
दी...
देहल
साहब की
पत्नी का
निधन साल
2011 में हुआ
था...उधर
क़रीब तीन
साल पहले
घर में
ही फिसलकर
गिर पड़ने
की वजह
से देहल
साहब के
कूल्हे का
जोड़ टूट
गया था
जिसके बाद
से उन्हें
चलने-फिरने
के लिए
वॉकर का
सहारा लेना
पड़ता था...और
फिर
15 अगस्त
2019 को यानि
आज से
5 महीने पहले,
84 साल
की उम्र
में वो
भी इस
दुनिया को
अलविदा कह
गए...
मेरे
सामने टेबल
पर देहल
साहब की
तस्वीर रखी
थी...वोही
शांत, मुस्कुराता
हुआ चेहरा...साथ
में उनकी
पत्नी की
तस्वीर भी
थी|
’लेकिन
मीडिया में
तो कहीं
कुछ नहीं
आया?’ - मैंने
सवाल किया|
‘फ़िल्मों
से, फ़िल्मी
लोगों से
डैडी का
रिश्ता बहुत
पहले ही
टूट चुका
था...और
फिर वो
बहुत प्राइवेट
क़िस्म के
इंसान थे’
- उनकी बेटी
ने जवाब
दिया|
मैं वहां
अब और
नहीं रूक
पाया...मैंने
हाथ जोड़कर
उनसे विदा
ली और
भारी मन
और भारी
कदमों से
बाहर निकल
आया, देहल
साहब के
उस कर्ज़
को ताउम्र
ढोने का
अभिशाप सर
पर लिए...
.........ये
सब लिखते
हुए आज भी मेरी
आंखें नम
हो उठी
हैं!
....................................................................................................................
(मूलत: फ़ेसबुक पोस्ट : दिनांक 21.01.2020)
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