हमेशा
की तरह
आज फिर
से आधीरात
को नींद
खुल गयी...लगातार
कोशिश करता
रहा सोने
की लेकिन
निर्दयी-निर्लज्ज
दोबारा आयी
ही नहीं...पिछले
तीन-चार
महीनों से
लगातार यही
होता आ
रहा है,
ढाई-तीन
बजे अचानक
ही आंख
खुलती है
और फिर
शुरू होता
है वोही
सिलसिला
- करवटें बदलने
का, गायत्रीमन्त्र
और शिवतांडव
स्त्रोतम के
जाप का,
उस कठोरहृदया
को लुभाने
की तमाम
जीतोड़ कोशिशों
का...लेकिन
सब निष्फल...सो
वोही कहानी
आज की
रात भी
खुद को
दोहराने पर
आमादा थी...
एकाएक
कानों में
किसी स्त्री
की फुसफुसाहट
सी गूंजी
- 'सर
जी!'
खिड़की के
परदे में
से छनकर
आती मद्धम
सी रोशनी
में मैंने
अपने बगल
में शयनरत
श्रीमती जी
की ओर
देखा...लेकिन
वो तो
हमेशा की
तरह आज
भी उस
तरफ़ को
करवट लिए
बेहोशी सरीखी
गहरी नींद
में डूबी
हुई थीं...
अरे
भई माना
कि घर
के अन्दर
किसी भी
बाहरी व्यक्ति
के आने
पर लगी
रोक ने
इन दिनों
झाडूपोंछा, कपड़ेबर्तन,
खानापकाना जैसे
तमाम घरेलू
कामों का
बोझ श्रीमती
जी के
कन्धों पर
डाला हुआ
है लेकिन
गृहस्थी की
रॉयल एनफील्ड
क्या एक
ही पहिये
के सहारे
रफ़्तार पकड़े
हुए है?
शाम ढलते
ढलते क्या
दूसरा पहिया
भी थककर
उतना ही
चूर नहीं
हो जाता?...तो
फिर ऐसी
घोड़ेबेचू नींद
उस दूसरे
पहिये के
नसीब में
क्यों नहीं?
मेरे मन
में कुंठा
और ईर्ष्या
का मिलाजुला
सा भाव
जगा...
'सर
जी!'
- फिर से
वोही फुसफुसाया
हुआ सा
स्त्री स्वर...पहले
से थोड़ा
तेज़...थोड़ा
साफ़...वो
स्वर शायद
खिड़की के
बाहर से
आया था...लेकिन
दूसरी मंज़िल
के हमारे
बेडरूम की
खिड़की तो
ज़मीन से
१२-१५
फुट ऊपर
है, उसके
बाहर से
स्त्री स्वर?...'कौन
होगी भाई
ये १५
फुटी 'चिमनी'देवी?'
- मन में
सवाल उठा...परदा
खिसकाया तो
खिड़की की
ग्रिल के
बाहर वाकई
एक स्त्री
को पाया...वो
हवा में
तैरती हुई
सी प्रतीत
हो रही
थी...
ओह,
ये कहीं
वो तो
नहीं?...बेशुमार
क़िस्से-कहानियों
की नायिका...मेरी
पड़ोसन, मेरी
खिड़की से
ठीक सामने
वाले सूखे
पेड़ की
लाल गाऊन
वाली निवासिनी?
दरअसल
मुम्बई के
सुदूर पश्चिमोत्तर
का ये
इलाक़ा, जहां
आज मीरा
रोड का
ये उपनगर
शान से
सर उठाए
खड़ा है,
४-५
दशकों पहले
तक दलदल,
नदी-नालों,
मैन्ग्रोव के
जंगलों, झाड़झंखाड़
और नमक
की क्यारियों
से पटा
हुआ था...सांप-बिच्छुओं,
गीदड़-बिज्जुओं
और और
भी तमाम
क़िस्म के
जंगली जानवरों
और सरीसृपों
से भरा
हुआ...सुनसान...बियाबान...और
उन सबके
बीच कहीं
कहीं छोटे
छोटे गांव...भाईंदर...काशीगांव...मीरा
गांव...पेणकरपाड़ा...आज
उन गांवों
को और
उस बियाबान
को ये
करिश्माई महानगर
पूरी तरह
लील चुका
है...उस
दौर में
ये इलाक़ा
मुम्बई के
अपराधियों की
पनाहगाह तो
था ही,
क़ानूनन ज़िलाबदर
किये गए
यानी तड़ीपार
अपराधियों का
भी ये
पसंदीदा हुआ
करता था...शायद
इसीलिये हंसी
मज़ाक में
आज भी
अक्सर लोग
हमें 'तड़ीपार
वाले' कहते
हैं...उस
ज़माने में
लोगों का
क़त्ल करके
लाशों को
दलदल में
ग़ायब कर
देने के
क़िस्से आज
भी कभीकभार
सुनने में
आते हैं...साथ
ही अकाल
मौत मारे
गए स्त्री-पुरूषों
की भटकती
हुई अतृप्त
आत्माओं के
क़िस्से भी,
जो स्वाभाविक
रूप से
कहीं ज़्यादा
रोमांचक, ज़्यादा
लज़्ज़तदार, ज़्यादा
आकर्षक होते
हैं...खिड़की
के बाहर
हवा में
तैर रही
मेरी पड़ोसन
भी ऐसे
ही एक
क़िस्से की
नायिका थी...
पिछले २ दशकों से यानी जबसे मीरा रोड में यानी इस बिल्डिंग में शिफ्ट हुआ हूं, सूखे पेड़ की डाल पर लाल गाऊन पहने गुमसुम बैठी स्त्री के नज़र आने के क़िस्से लगातार सुनता आ रहा हूं...कहा जाता है कि वो भी उन बेशुमार बदनसीबों में से थी जिन्हें क़त्ल करके दलदल के हवाले कर दिया गया था...और अब ये सूखा पेड़ ही उस अतृप्त आत्मा का बसेरा था|
'लेकिन
इस स्त्री
का तो
चेहरा खिला
हुआ है...ये
तो गुमसुम
नहीं है'
- मेरे मन
में सवाल
उठा...
'सर,
आपकी मदद
चाहिए मुझे'
- उसने बुदबुदाते
हुए कहा...
'मेरी
मदद? लेकिन
मेरी ही
क्यों?' - मेरे
मन में
उठे इस
सवाल को
वो बिना
पूछे ही
समझ गयी|
'इस
वक़्त लोग
गहरी नींद
में होंगे,
उन्हें क्यों
परेशान करूं...आप
उल्लू की
तरह रात
भर जागते
रहते हैं
तो सोचा
आपसे मदद
मांगना बेहतर
होगा|'
'कैसी
मदद?'
'सही
सही तो
याद नहीं
है लेकिन
७०
- ८० बरस
तो हो
ही गए
होंगे जब
मैंने उस
पेड़ को
अपना ठिकाना
बनाया था|'
उसने
अंधेरे में
खड़े सूखे
पेड़ की
तरफ़ इशारा
किया...
'बहुत
सुकून था
उन दिनों...कहीं
कोई शोर
नहीं...कहीं
कोई आपाधापी
नहीं...सब
तरफ़ बस
कुदरत के
हसीन नज़ारे...फिर
यहां इंसान
के कदम
पड़े...ट्रकों
का, मशीनों
का शोर
बढ़ने लगा...ये
बियाबान इलाक़ा
मेरे देखते
देखते कंक्रीट
के जंगल
में तब्दील
होता चला
गया...इंसानी
चहलपहल बरसों
के मेरे
सुकून का
ख़ात्मा करती
चली गयी...तेज़ी
से बदलते
हालात के
साथ कदमताल
कर पाना
मेरे लिए
मुश्किल हो
गया...मेरा
मन बुझता
चला गया...मेरी
हंसी मेरी
ख़ुशी छिन
गयी...मैं
गुमसुम सी
रहने लगी...मन
में बस
अब एक
ही बात
थी, दिन
तो घूरे
के भी
फिरते हैं,
तो मुझे
भी तो
मोक्ष मिलना
चाहिए...आख़िर
कब तक
रहूंगी इस
अधर में
लटकी हुई?...लेकिन
न तो
ईश्वर ने
मेरी सुनी,
न इंसान
ने मेरे
लिए शान्तिपाठ
किया...लेकिन
आज...'
ये
कहते कहते
एकाएक उसका
चेहरा दमक
उठा...उसके
होंठों पर
मुस्कान तिर
गयी थी...
'मैं
आप लोगों
की इस
दुनिया से
बहुत दूर
जा रही
हूं...भले
ही आप
लोगों ने
मेरा सुखचैन
छीना हो
लेकिन आप
सबके बीच
इतना लंबा
वक़्त गुज़ारने
के बाद
आप सबसे
लगाव हो
जाना भी
तो स्वाभाविक
ही था...मैं
जानती हूं
कि आपके
लिए मैं
हमेशा से
ही क़िस्से-कहानियों
का हिस्सा
रही हूं...और
साल-छः
महीने में
एकाध बार
किसी न
किसी को
नज़र भी
आती रही
हूं...लेकिन
मैं आप
लोगों के
मन में
अपने प्रति
कोई भी
सवाल छोड़कर
नहीं जाना
चाहती...मैं
चाहती हूं
कि आने
वाले वक़्त
में भी
भले ही
क़िस्से-कहानियों
का हिस्सा
बनी रहूं
लेकिन उसमें
एक बात
और जुड़
जाए कि
मुझ तड़पती
हुई आत्मा
को आज
के रोज़
मोक्ष की
प्राप्ति हो
गयी थी...और
इसीलिये मदद
की आस
में आपके
पास आयी
हूं कि
मेरा ये
सन्देश आप
इन सभी
लोगों तक
पहुंचा दें...'
उसने
चारों तरफ़
की बिल्डिंगों
की ओर
हाथ घुमाकर
इशारा किया...
'मेरे
लिए आप
इतना तो
करेंगे न
सर?'
मैं
हतप्रभ था...मेरी
ज़ुबान को
लकवा मार
गया था...मैं
'हां'
में सिर्फ़
सर ही
हिला पाया...
'थैंक
यू सर|...गॉड
ब्लेस यू|'
- वो तैरती
हुई सी
वापस मुड़ने
को हुई...
'रूको|'
उसने
मेरी ओर
देखा...
'अचानक
ये मोक्ष? मैं कुछ
समझा नहीं...'
वो मुस्कुराई...एकाएक उसे खांसी का धसका उठा...बिल्कुल सूखी खांसी...और उसकी सांस अटक सी गयी...वो और भी ज़्यादा मुस्कुराई...और फिर 'ज़िनपिंग ज़िंदाबाद' का नारा लगाकर हवा में तेज़ी से तैरती हुई अंधेरे में ग़ायब हो गयी...
मैं
वापस आकर
बिस्तर पर
लेटा और
फिर पता
नहीं कब
मेरी आंख
लग गयी...सुबह
उठा तो
ज़हन में
रात वाली
वो घटना
कौंध गयी...मुझे
लगा वो
महज़ मेरा
सपना था...मैं
उठकर खिड़की
के पास
आया...परदा
हटाया...मेरी
नज़र ठीक
सामने खड़े
उस सूखे
पेड़ पर
गयी...
पेड़
की डाल
पर एक
लाल रंग
का गाऊन
लटका हुआ
था!
(कोरोनाकाल की कथा)
बहुत दिलचस्प
ReplyDeleteबेहद दिलचस्प किस्सा। पर मोहतरमा अपनी पूरी कहानी सुना के नहीं गयीं।
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