Friday 14 June 2013

"काफल पाक्यो"

"काफल पाक्यो"                      
…………..कहानी : शिशिर कृष्ण शर्मा
                  (चित्र: मनस्वी शर्मा)
(‘जागरण उदय’ / जनवरी 2001 में प्रकाशित !!!)

गंगा मौन थी ! ...नि:शब्द ! ...शायद स्तब्ध ! टेसू के वृक्ष दहकते अंगारों से अटे पड़े थे। आम बौराने लगे थे और समूची घाटीकाफल पाक्योकी ध्वनि और प्रतिध्वनियों से गुंजायमान थी।

मार्च-अप्रैल के महिनों में यहां पहाड़ों पर अक्सर ये पक्षी कूकता फिरता है, हर किसी को सूचित करता हुआ...”काफल पाक्यो”...! और आश्चर्य, इन्हीं दिनों यहां काफल पक रहे होते हैं। मीठे, मखमली, जंगली फल...काफल

विट्ठल आश्रम के लॉन में मैं बेंत की आरामकुर्सी पर बैठा, या यों कहें धंसा हुआ सा था। शरीर का अंग-अंग एक अजीब सी जकड़न से घिरा हुआ था। पलकें नींद के बोझ से ढलकी-ढलकी जाती थीं और मस्तिष्क में मानों घन बरस रहे थे। सारी रात मैं क्षणमात्र को भी चैन से सो नहीं पाया था। पलकें मूंदते ही वो चेहरा आंखों के सामने घूमने लगता था।बस, एक बार दिख जाए कहीं तो......” और सारी रात मैं सोता सा जागता, या जागता सा सोता रहा और कब करवटें बदलते-बदलते सवेरा हो गया, पता ही नहीं चल पाया था।

प्रकृति का सुंदरतम रूप मेरे सामने था। घाटी में गंगा बह रही थी, किशोरावस्था की अल्हड़ता और उच्छृंखलता को तजकर धीर-गंभीर पूर्णयौवना रूप में परिवर्तित होती हुई सी। उस पार गीताभवन, स्वर्गाश्रम और फिर पहाड़। सालभर में कई कई रंग बदलते हैं ये पहाड़। इन दिनों जब वृक्षों पर नए पत्ते और फूल आते हैं तो पहाड़ों का रंग सुनहरी हो उठता है ! ...लालिमा लिए हुए सुनहरी। गीताभवन और स्वर्गाश्रम के मंदिरों से आते शंख, घंटे-घड़ियाल और आरती के स्वरों से वातावरण अत्यंत सात्विक और पवित्र हो उठा था। किंतु इन सबसे बेख़बर, मैं अपने अलसाएपन से जूझ रहा था। 

आपने कभी काफल खाए”? मधुकर जी ने प्रश्न किया। दबे पांव आकर जाने कब वो साथ वाली कुर्सी पर बैठ गए थे। मैंने बहुत चाहा कि उनको बतलाऊं, काफल, गंगा, पहाड़ और इस क़स्बे से जुड़ी अपनी यादों के विषय में लेकिन रात के उनींदेपन ने मानों ज़ुबान को भी जकड़कर रख दिया था। प्रत्युत्तर में मैं मात्र सिर हिलाकर हां ही कह पाया और फिर हमारे बीच मौन एक दीवार बनकर खड़ा हो गया।


तीन रोज़ पहले कंपनी के काम से जब यहां पहुंचा था तो मधुकर जी मेरे स्वागत के लिए आश्रम के गेट पर मौजूद थे। मुंबई के मेरे एक पड़ोसी मित्र ने फ़ोन करके मेरे ठहरने का प्रबंध पहले से ही विट्ठल आश्रम में करा दिया था। आश्रम के संचालक मधुकर जी उसके मौसेरे भाई थे। आश्रम और मधुकर जी की जो छवि लेकर मुंबई से चला था, वो यहां पहुंचते ही भरभराकर ढह पड़ी थी। आश्रम के नाम पर, गंगा के इस पार पहाड़ी पर, कई एकड़ सीढ़ीदार ज़मीन पर फलदार वृक्षों से घिरी, सभी सुखसुविधाओं से युक्त पांच-छह कॉटेज और गेरूए वस्त्रों के स्थान पर जींस-टीशर्ट पहने, बिल्लौरी आंखों और घुंघराले बालों वाले लगभग मेरे ही समवयस्क मधुकर जी। कुल मिलाकर अत्यंत सुदर्शन व्यक्तित्व।मैं मधुकर शर्मा आप ही की प्रतीक्षा में था”...हाथ जोड़कर वो बोले तो लगा मानों किसी ने हौले से जलतरंग छेड़ दिया हो।

मेरे बचपन के तीन बरस इसी क़स्बे में बीते थे। बाबूजी बैंक की नौकरी में थे और जब तक रिटायर नहीं हो गए, हर तीन-चार बरस के स्थानांतरण पर शहर दर शहर भटकते रहे थे। और अब तीस बरस बाद मैं एक बार फिर से यहां पर था...ऋषिकेश में।

रिटायरमेंट के बाद बाबूजी ने सतना में मकान बनवा लिया था और अब वो और अम्मा स्थायी रूप से वहीं रहने लगे थे। इधर मैं मुंबई में बस चुका था। फ़ोन पर अम्मा और बाबूजी से सम्पर्क लगातार बना रहता था और साल में एकाध बार उनका मुंबई और मेरा सपरिवार सतना आना-जाना भी होता रहता था। जब मेरा ऋषिकेश आने का कार्यक्रम बना और मैंने अम्मा-बाबूजी को इसकी सूचना दी तो अम्मा ने ज़ोर देकर कहा था कि मैं वहां सुभद्रा मौसी से जरूर मिलकर आऊं। सुभद्रा मौसी......???......और ज़रा से प्रयत्न से यादों पर पड़ी बरसों की परतें प्याज़ के छिलकों की भांति उतरती चली गयी थीं और आंखों के सामने घूमने लगे थे वो दृश्य जिनमें सुभद्रा मौसी थीं, अनिरूद्ध था, चोटीवाला होटल के बाहर खड़ाचोटीवालाथा, त्रिवेणीघाट था, गंगा थी, लक्ष्मणझूला था, टोकरों में भरकर काफल बेचने वाले थे और और भी जाने कौन-कौन और क्या-क्या था, भले ही दृश्य धुंधलाए हुए थे लेकिन मुझे तीस बरस पीछे ले जाने के लिए पर्याप्त थे।

बेहद उबा देने वाली लंबी-लंबी बैठकों की लगातार दो दिनों की व्यस्तता से कल दोपहर बाद फ़ुरसत मिली तो मैं लस्त-पस्त, थककर चूर हो चुका था। इच्छा थी कि कॉटेज में जाकर सो जाऊं। लेकिन अम्मा का अधिकारपूर्ण आग्रह ! एक बार तो मन हुआ, टाल जाऊं। एक तो मेरे पास उस घर का पूरा पता नहीं था जिसमें हम तीन बरस किराए पर रहे थे। नौ-दस बरस का ही तो था तब मैं। और फिर माना किसी तरह पहुंच ही गया तो ये भी ज़रूरी नहीं था कि सुभद्रा मौसी वहां मिलेंगी ही। और अगर मिलीं भी तो क्या तीस बरस पहले की बातें याद होंगी उन्हें? आख़िर हमारा रिश्ता मकान-मालकिन और किराएदार का ही तो था। हमारे बाद इस लंबे अरसे में कई-कई किराएदार उनके मकान में आए और गए होंगे, किस-किस को याद रखा होगा उन्होंने? लेकिन मन नहीं माना। अम्मा पूछेंगी तो क्या उत्तर दूंगा उन्हें? झूठ तो बोल नहीं पाऊंगा उनसे। अम्मा सिर्फ़ कहती ही नहीं हैं बल्कि कई बार साबित भी कर चुकी हैं कि, “दाई से पेट और मां से मन कभी नहीं छुपता। बच्चे की रग-रग को पहचानती है मां और फिर सच कहूं तो कहीं कहीं मेरी इच्छा भी तो थी अनिरूद्ध से मिलने की जिसके साथ खेलते-कूदते, लड़ते-झगड़ते उन तीन बरसों का मेरा अधिकांश समय बीता था। सुभद्रा मौसी का इकलौता बेटा, या यों कहें, इकलौती औलाद, मेरा हमउम्र अनिरूद्ध। और मेरे कदम उस मुहल्ले की ओर उठ ही गए। अधूरा सा पता...सुभद्रा मौसी...मुनि की रेती।

वो मकान ढूंढने में मुझे ख़ासी परेशानी हुई। तीस बरस पहले का वो खुला-खुला इलाक़ा आज संकरी गलियों और बेतरतीब, बेढंगे, एक-दूसरे से सटे मकानों के जंगल में परिवर्तित हो चुका था। काफ़ी मशक्कत के बाद आख़िरकार मैं उस मकान तक पहुंच ही गया। मैंने बेरोकटोक अंदर प्रवेश किया और अब मैं दालान में था। मुझे याद आया, ऊपरवाली मंज़िल पर बने उन दो कमरों में मैंने बचपन के तीन बरस बिताए थे।...और ये भी कि अनिरूद्ध और मैं इसी दालान में खेलते थे और उस सामने वाले कमरे में सुभद्रा मौसी रहती थीं। मैंने आगे बढ़कर उस कमरे के बंद दरवाज़े पर हलकी सी थपकी दी। मेरा हृदय ज़ोरों से धड़क रहा था और माथे पर पसीने की बूंदें उभर आयी थीं। कमरे के अंदर से मुझे कदमों की आहट सुनाई दी। दरवाज़ा खुला और मैं कांप उठा।

ठीक सामने दरवाज़े पर, सूखकर कंकाल हो चुकी काया खड़ी थी। गाल पिचके हुए, आंखें धंसी हुईं, जटाओं में बदल चुके सिर के अधपके बाल, पोपले मुंह से निचले होंठ पर लटका हुआ सा ऊपर का एक दांत, मैली-कुचैली धोती। अर्धविक्षिप्त सी दिख रही उस वृद्धा में मेरी दृष्टि तीस साल पहले की धुंधलायी यादों में मौजूद अत्यंत सुंदर, सौम्य और ममतामयी सुभद्रा मौसी को खोजने लगी। मैंने उन्हें अम्मा, बाबूजी और अपने बारे में सबकुछ बतलाया, किंतु वो अजनबी सी निगाहों से मौन खड़ी मुझे घूरती रहीं...एकटक...अपलक ! मैंने उन्हें तीस बरस पहले का वो समय याद दिलाने का भरसक प्रयत्न किया किंतु सब व्यर्थ ही रहा। उनके अंधेरे कमरे से आती सीलन की भयंकर बदबू से मेरा सिर चकराने लगा था। मुझे ध्यान ही नहीं था कि कब उस बड़े से मकान की ऊपरी मंज़िल से और दालान के चारों ओर बने कमरों से निकलकर कई जोड़ी आंखें मुझपर केंद्रित हो गयी थीं। उन सभी चेहरों पर कौतूहल का भाव था।

एकाएक सुभद्रा मौसी ठठाकर हंस पड़ीं और हंसते-हंसते मुझसे लिपट गयीं। गया... गया मेरा बेटा...मेरा अन्नू...पता था मुझे, तू आएगा ज़रूर”! फिर मुझे दूर धकेलतीं शिकायती लहजे में पूछने लगीं, “कहां था रे इतने बरस?...अब याद आयी तुझे मां की”? और फिर मेरा हाथ पकड़कर घसीटती हुईं, बरामदे से उतरकर मुझे दालान में ले आयीं और बरामदे और ऊपरी मंज़िल से झांकते चेहरों से चीख-चीखकर कहने लगीं, “देख लो, लौट आया है मेरा बेटा...इस मकान का वारिस...मैंने कहा था तुमसे, मेरा अन्नू लौटेगा जरूर?...अब देखती हूं कैसे कब्ज़ाओगे तुम लोग इस मकान को”! और फिर आंखें नचा-नचाकर लगभग गाने के से अंदाज़ में बोलीं, “अब तो ख़ाली करना ही पड़ेगा तुम लोगों को ये मकान। बहुत दुख दिया तुम लोगों ने मुझे...बहुत सताया...सोचते होगे, बुढ़िया का कोई नहीं है दुनिया में। अरे ये है इस घर का मालिक...मेरा बेटा...मेरा अनिरूद्ध” !

मैं सदमे की सी हालत में था। कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि ये सब हो क्या रहा है। सभी कुछ इतना अप्रत्याशित था कि सुभद्रा मौसी और चारों ओर खड़े तमाशबीनों को सिवा जड़वत ताकते रहने के मैं कुछ और कर भी नहीं सकता था। एकाएक सुभद्रा मौसी मेरे सामने तनकर खड़ी हो गयीं। उनका चेहरा पत्थर सा सख़्त हो उठा और आंखों से चिंगारियां फूटने लगीं। अत्यंत ठंडे किंतु दृढ़ स्वर में उन्होंने मुझसे पूछा, “किसने बताया था तुझे कि मैं तेरी सगी मां नहीं हूं? किसने लगायी थी आग इस घर को? बोल...? मैं उसका ख़ून पी जाऊंगी उनकी जलती निगाहों का सामना कर पाने में मैं सर्वथा असमर्थ था।

बोल क्या कमी रखी थी तेरे लिए मैंने? तू अगर मेरा पेटजाया होता तो क्या सोने में मढ़वा देती तुझे? किसने भड़काया था तुझे जो एक ही झटके में सारे रिश्ते तोड़ के ग़ायब हो गया तू? पता है इस सदमे ने तेरे बाबूजी की जान ले ली? मरते दम तक तेरी छोड़ी चिट्ठी पढ़-पढ़ के रोते रहे। उन्हें तो आग भी मैंने दी...इन हाथों से...”! सुभद्रा मौसी ने अपने ठूंठ से हाथ आगे बढ़ाए और फिर अपना माथा पीट-पीटकर रोने लगीं। उनका वो करूण क्रंदन...वो विलाप...वो आर्तनाद...उफ़्फ़ ! कानों के रास्ते मानों कोई पैनी तलवार हृदय में उतार रहा हो। बहुत चेष्टा की रोकने की किंतु आंखें छलछला ही उठीं। एकाएक उनके कंठ से एक मर्मभेदी चीख निकली और वो भरभराकर नीचे गिर पड़ीं। चारों ओर सन्नाटा पसर चुका था। तमाशबीन अपने अपने कमरों में जा दुबके थे। सुभद्रा मौसी दालान में बेहोश पड़ी थीं। और तभी अचानक वो चेहरा मेरी आंखों के आगे कौंध उठा।

सालभर पहले की ही तो बात है। मुंबई में घर के पास लगी एक नुमाईश में मैं पत्नी-बच्चों के साथ गया हुआ था। अथाह भीड़... और तभी कुछ-कुछ पहचाना हुआ सा वो चेहरा मेरे सामने आया। सिर के बाल लगभग उड़े हुए...गाल धंसे हुए...दुबला-पतला सा, गुब्बारे बेचने वाला। ग़ुरबत की मार ने असमय ही उसे बुढ़ापे की देहरी पर ला पटका था। शायद वो भी मुझे पहचानने की चेष्टा कर रहा था। एकाएक उसे झटका सा लगा, वो मुड़ा और बिजली की सी गति से भीड़ में खो गया। मुझे याद हैं उसके चेहरे पर आते जाते रंग किंतु तब मैंने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया था। चेहरों का तो समुद्र है ये महानगर...किस किस चेहरे को याद रखें?...और किसलिए?...और मैंने मस्तिष्क से उस चेहरे को भी उन लाखों चेहरों के कूड़ेदान में पटक दिया था, जो रोज़ दिखते हैं सड़कों पर, गली-कूंचों में, बसों में, लोकल ट्रेन में और...और भी सब जगह...सब तरफ़

बेहोश पड़ी सुभद्रा मौसी को मैंने गोद में उठाया और उनके कमरे में रखी चारपाई पर लेटा दिया। मैं जानता था कि अगर वो फिर से होश में गयीं तो मेरे लिए यहां से निकल पाना दूभर हो जाएगा। भावनाओं और व्यवहारिकता की रस्साकशी में अंतत: हारना भावनाओं को ही पड़ा। लेकिन अपनी इस कायरता पर मुझे कोई शर्मिंदगी भी नहीं थी। दबे पांव उस मकान से बाहर आकर मैंने रिक्शा लिया, वापस विट्ठल आश्रम पहुंचा और फिर सोने की चेष्टा में रातभर जागता रहा...स्वयं से, और उस गुब्बारे वाले के चेहरे से लड़ता हुआ।...हां, वो अनिरूद्ध ही था।

अनिरूद्ध की मन:स्थिति को भी मैं भलीभांति समझ रहा था। जब अचानक उसे पता चला होगा कि वो सुभद्रा मौसी का अपना नहीं बल्कि अनाथालय से गोद लिया हुआ पुत्र है तो कितना टूट गया होगा वो। कितना ठगा सा, कितना एकाकी पाया होगा उसने स्वयं को। लेकिन घर छोड़कर जाने के पीछे उसकी मंशा सुभद्रा मौसी और उनके पति को कष्ट पहुंचाने की तो हरगिज़ नहीं रही होगी। उसने तो स्वयं से विद्रोह किया होगा। स्वयं से घृणा हो गयी होगी उसे।...और रातभर मैं तड़पता रहा...”बस एक बार दिख जाए कहीं तो उसे वापस यहां ला पटकूंगा...सुभद्रा मौसी के चरणों में। उसका गिरेबां पकड़ के पूछूंगा, किस बात का दंड दे रहा है स्वयं को?...और उससे मनवाकर ही रहूंगा कि यशोदा किसी भी लिहाज़ से देवकी से कम नहीं थी

मधुकर जी ने दो-चार दिन और रूकने का आग्रह किया किंतु अब क्षणमात्र के लिए भी उस क़स्बे में रह पाना मेरे लिए संभव नहीं था। उसी शाम दिल्ली पहुंचकर मैंने फ़्लाईट ली और रात को मैं मुंबई में था...पत्नी-बच्चों के बीच...अपने घर में। सतना में अम्मा से बात हुई तो सुभद्रा मौसी के हालात जानकर वो फ़ोन पर ही रो पड़ीं।

इस घटना को चार बरस बीत चुके हैं। पता नहीं सुभद्रा मौसी अब हैं भी या नहीं। कभी-कभार मधुकर जी से फ़ोन पर बात हो जाया करती थी लेकिन समय के साथ-साथ अब वो सिलसिला भी टूट चुका है। लेकिन आज भी चेहरों के जंगल में कहीं स्वयं को पाता हूं तो निगाहें स्वयंमेव उस चेहरे को ढूंढने लगती हैं जिसका नाम अनिरूद्ध है। सुभद्रा मौसी का आर्तनाद आज भी मेरा पीछा करता है...और आज भी कभी-कभार कानों में वो कूक गूंज उठती है...”काफल पाक्यो” !...”काफल पाक्यो” !!

……………………………………….काफल पाक्यो / शिशिर कृष्ण शर्मा
(जागरण उदय’ / जनवरी 2001 में प्रकाशित !!!)   

3 comments:

  1. I read it on the same day when I was interacting with you. The beginning carried me to read it in full and I congratulate you for your strong writing skill bhai sahab, Sachmuch kahaani ne ekdam stabdh kar diya.......bahut der tak main sochta rahaa ki kya pratikriya doon par shabd naheen mil rahe the..........Bahut sundar rachna...............Kaash Aniruddha kaheen mil jaata.....Lekin mil bhi jaaye to kya...Subhadra Mausi to nahee raheen...........bahut hi maarmik rachna hai.......

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  2. a moving story goes straight to the heart.it has all the visual elements of a good story.

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  3. बहुत सुन्दर

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