Tuesday 1 December 2015

"मैंने देखी पहली फ़िल्म - बीस साल बाद"

"मैंने देखी पहली फ़िल्म - बीस साल बाद
           ...........शिशिर कृष्ण शर्मा



‘...जनता की भारी मांग पर...घटी दरों पर...नए प्रिंट के साथ...न्यू एम्पायर’ में देखिए...!!!' ...और तांगे के दोनों तरफ़ लगे होर्डिंग्स पर नज़र पड़ते ही मेरी बांछें, बकौल श्रीलाल शुक्लवो शरीर में जहां कहीं भी थीं’, खिल उठीं। होर्डिंग्स पर मौजूद थे हेट लगाए और ओवरकोट ओढ़े शहरी बाबू विश्वजीत और लहंगा-चोली पहने और दुपट्टे का कोना मुंह में दबाए शरमाती-इठलाती ग्रामीण बाला वहीदा रहमान।...पार्श्व में था वो मशहूर ख़ूनी पंजा जिसका ज़िक़्र मैं अपने होश संभालने के वक़्त से लोगों के मुंह से सुनता रहा था। तांगे पर लगे भोंपू ऐलान कर रहे थे...’रोज़ाना चार शो’...’ख़ून को जमा देने वाला खेल’...’बीस साल बाद’...’बीस साल बाद’ !!!

आज की पीढ़ी के लिए भले ही ये एक अजूबा हो, लेकिन 70 के दशक में फ़िल्मों का प्रचार इसी तरह से तांगों और रिक्शों पर शहरों-क़स्बों के गली-कूंचों में घूम-घूमकर किया जाता था। उस जमाने में तो टेलीविज़न थे और ही ऑडियो-वीडियो कैसेट। सी.डी.-डी.वी.डी.प्लेयर और कम्प्यूटर जैसी अलौकिक चीज़ों का तो ख़्याल भी किसी के ज़हन में नहीं था। मनोरंजन का सस्ता और सुलभ साधन सिर्फ़ सिनेमा था, पुरानी फ़िल्में सालों-साल बार-बार प्रदर्शित की जाती थीं और हरेक शहर और क़स्बे में कम से कम एक सिनेमाहॉल सिर्फ़ पुरानी फ़िल्मों के प्रदर्शन के लिए सुरक्षित होता था, जैसा कि मेरे शहर देहरादून कान्यू एम्पायर बरसों के इंतज़ार की मेरी घड़ियां ख़त्म हो चुकी थीं और मेरे शहर में अब फिर से दिखाया जा रहा था... ‘ख़ून को जमा देने वाला खेल’...’बीस साल बाद’...जनता की भारी मांग पर...घटी दरों पर, रोज़ाना चार शो...!!!

बीस साल बादऔर मेरी पैदाईश एक ही साल, यानि 1962 की थी। और अब 15 बरस की उम्र में मैं पहली बार अकेला कोई फ़िल्म देखने पहुंचा था।...मेराहमउम्रऔर बहुप्रतीक्षितखेल’...’बीस साल बाद मां ने दो रूपए दिए थे, बीस पैसे साईकिल स्टैंड के ख़र्च हुए और एक रूपए बीस पैसे का फ़िल्म का टिकट ख़रीदा। फ़िल्म के शुरू होते ही कलेजा घोड़े पर सवार हो गया। माथे पर पसीना, अटकती सांसें, खटमलों से भरी, फटी सीट के टूटे हत्थों पर कसती मुट्ठियां। हॉल में गूंजती अजीब अजीब सी डरावनी आवाज़ें दहशत के ग्राफ़ को चांद के पार पहुंचा रही थीं। 

ये आवाज़ें उन छोकरेनुमा दर्शकों की थीं जो नवरस के प्रत्येक रस को सिर्फ़मौजमस्ती-रसमें बदलकर रख देना चाहते हैं। उधर परदे पर आदमक़द घास के बीच से गुज़रता, डरा हुआ सा आदमी उलटे क़दमों से चलकर घने पेड़ के पास पहुंचा और इधर हॉल में गूंजती डरावनी आवाज़ें अपने चरम पर पहुंच गयीं।...और फिर अचानक वो ख़ूनी पंजा !...उस आदमी का क़त्ल !! ...और अंतत: हॉल में पसरा हुआ सन्नाटा !!!

मेरा दृढ़ विश्वास है किब्लैक एंड व्हाईटकी सी मनमोहक लाईटिंग और असरदार गहराई रंगीन सिनेमा में और वो भी रहस्य-रोमांच वाली फ़िल्मों में हो ही नहीं सकती। हिंदी सिनेमा के स्वर्णकाल की पूर्ण प्रतिनिधि उस फ़िल्म का मेरे किशोर मन पर ऐसा ज़बर्दस्त असर हुआ कि आज 35 बरस बाद भी अपनी उसहमउम्रके साथ मेरा उतना ही क़रीबी रिश्ता बना हुआ है। 

क़ातिल का पता तो उस पहले शो में ही चल चुका था लेकिन इस फिल्म को देखने का मौक़ा मैं आज भी ढूंढ ही लेता हूं।...हर बार वोही आनंद...वोही नयापन। कसी हुई कथा-पटकथा, कमाल की फ़ोटोग्राफ़ी, बेमिसाल निर्देशन! ...सुनसान भुतहा हवेली ...पैशाचिक ध्वनि के साथ खुलते-बंद होते खिड़की-दरवाज़े...दूर कहीं किसी स्त्री का रूदन ...घुंघरूओं की छमछम ...गलियारे से गुज़रता रहस्यमय साया...ऐसे में कलेजा उछलकर आख़िर हलक़ में क्यों आए? उधर कानों में रस घोलता गीत-संगीत, विशेषत: लता के पारलौकिक स्वर में तमाम रहस्यमयता को समेटे, दिल में उतर जाने वालाकहीं दीप जले कहीं दिल’, सीप के मोती की तरह बेहद ख़ूबसूरती के साथ गढ़ा गया फ़िल्म का एक एक चरित्र...नायक-नायिका की दिलकश जोड़ी...बग्घी पर सवारडॉक्टर पांडेय’ (मदन पुरी)...बैसाख़ी का सहारा लिएमोहन त्रिपाठी’ (सज्जन)...दर्शकों के तमाम तनाव और भय को तिरोहित कर देने वाला मशहूर और मज़ेदार चरित्रगोपीचंद जासूस’ (असित सेन)...सीधे-सादे बुज़ुर्ग चाचा (मनमोहन कृष्ण) ...सुनसान हवेली के
पुराने नौकरलक्ष्मणका अपने ही शब्दों को दोहराना - समझ गया...मैं सब समझ गया!' ...आज भी ये चरित्र मेरे दिल के सबसे ज़्यादा क़रीब है।लक्ष्मणके रहस्यों से लिपटे हुए चरित्र को निभाया था अभिनेता देवकिशन ने जो इस फ़िल्म के संवाद-लेखक भी थे।

देहरादून कीसर्वे ऑफ़ इंडियाकी सरकारी कॉलोनीहाथीबड़कला एस्टेटका 4 नंबर ब्लॉक, जहां मेरी ज़िंदगी के शुरूआती 28 बरस गुज़रे, उस ज़माने में घने जंगलों से घिरा हुआ था।
फ़िल्मबीस साल बाददेखने के बाद काफ़ी अरसे तक मेरे लिए रात-बेरात उस इलाक़े की सुनसान सड़कों से गुज़रना आसान नहीं रह गया था। देर रात नाटकों की रिहर्सल से लौटते वक़्त मैं इंतज़ार करता था कि मेरे घर की दिशा में जाने वाला जाना-अनजाना कोई तो साथी मिले।

सच कहूं तो उन दिनों कंठस्थ कियागायत्री-मंत्रआज भी मुझे शक्ति देता है...”ऊं भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यम........!!!” 
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(मूलत: ‘रेडियोप्लेबैकइंडिया.ब्लॉगस्पॉट.इन में दिनांक 30 अगस्त 2012 को प्रकाशित /

2 comments:

  1. बोहोत,बोहोत बढ़िया लिखे हैं आप शिशिर जी।
    Reading about your association with bees saal baad, और साथ में फिल्म की बारीकियां पढ़ कर, आपने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं ये फिल्म, वाकई *"बीस साल बाद"* दोबारा देखूं । धन्यवाद

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  2. बेहतरीन, लगा कि वो पूरी फिल्म आपके लेखन स आंखों के आगे दिख गई। मैंने भी डरते हुए देखी थी सिनेमाघर में यह फिल्म और आज भी यह डीवीडी पर मेरी फेवरेट है। चंदन गढ़ की आवाज़ के साथ शुरू होता थ्रिलर का सफ़र उस सुहाने अतीत में ले जाता है जब श्वेत श्याम मूवी आज की रंगीन फिल्मों से कहीं ज्यादा असर छोड़ती थी।
    Sharmaramesh.blogspot.in

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