Friday 27 December 2013

"इक आग का दरिया है ये" - सलमा सिद्दीक़ी

मुलाक़ात - श्रीमती सलमा सिद्दीक़ी के साथ

इक आग का दरिया है ये...!

(कृष्णचंदर और सलमा सिद्दीक़ी की मोहब्बत की दास्तान)

इक्कीसवीं सदी में भी जो समाज खाप पंचायतों और फ़तवों के पंजों से आज़ाद हो पाया हो, उसका आज से 60 साल पहले क्या हाल रहा होगा, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। दरअसल 1950 के दशक में दो परिपक्व और नामी शख़्सियतों के बीच मुहब्बत पनपी थी। दोनों ही शादीशुदा और बालबच्चेदार थे, उनकी पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि ही अलग नहीं थी बल्कि उम्र में भी बहुत बड़ा फ़ासला था। यहां तक कि दोनों के मज़हब भी अलग-अलग थे। अगर उनके बीच कुछ समान था तो वो थी उनकी ज़हानत, रचनाधर्मिता और समाज से लड़ने का हौंसला। वो दो ज़हीन शख़्स थे, मशहूर लेखक कृष्णचंदर (चोपड़ा) और लेखिका सलमा सिद्दीक़ी। कृष्णचंदर को ग़ुज़रे हुए तो क़रीब 37 बरस बीत चुके हैं लेकिन 82 साल की सलमा सिद्दीक़ी जी आज भी हमारे बीच हैं और अंधेरी (पश्चिम) - मुंबई के यारी रोड इलाक़े में रहती हैं। पिछले दिनोंव्यंग्योपासनाके लिए हुई ख़ास मुलाक़ात के दौरान उन्होंने कृष्णचंदर के प्रति अपनी बेपनाह मोहब्बत और ज़िंदगी के तमाम उतार-चढ़ावों पर बेलाग बातचीत की।


कृष्णचंदर से पहली मुलाक़ात

रेडियो नाटकों में अक्सर उनका नाम सुनती थी। फिर एक रोज़ बंगाल के अकाल पर उनका लिखा उपन्यासअन्नदाताहाथ लगा। पढ़ना शुरू किया तो उनकी लेखनी का जादू सर चढ़ता चला गया। उन्हीं दिनों सुंदरश्यामपरवेज़अपनी पत्रिकास्वायंके लिए कृष्णचंदर से कहानी लेने मुंबई गए तो साथ मेंस्वायंकी ताज़ातरीन प्रति भी ले गए। उसके कवर पर मेरी तस्वीर छपी थी। कृष्णचंदर जी ने मेरे बारे मेंपरवेज़से पूछताछ की और फिर दिल्ली आकर मुझसे मिले। मैंने उनकी लेखनी के प्रति अपनी दीवानगी के बारे में उन्हें बताया तो उन्हें अच्छा लगा। उन्होंने मुझे अपनी लिखी तमाम क़िताबें दीं और हमारा मेलजोल लगातार बढ़ता चला गया। मेरा डेढ़-दो बरस का बेटा भी बहुत जल्द कृष्णजी से हिलमिल गया था।

 

कृष्णजी की पारिवारिक पृष्ठभूमि -

कृष्णजी के वालिद सरकारी डॉक्टर थे और गुज़रांवाला में वज़ीराबाद के रहनेवाले थे। वज़ीराबाद में ही 26 नवम्बर 1914 को कृष्णजी का जन्म हुआ था। उनका बचपन पुंछ में गुज़रा जहां उनके वालिद की पोस्टिंग थी। तीन भाईयों और एक बहन में कृष्णजी सबसे बड़े थे। कृष्णजी से चार साल छोटे महेन्द्रनाथ थे, फिर बहन सरला, जिनकी शादी रेवतीशरण शर्मा से हुई थी। सबसे छोटे थे उपेन्द्रनाथ। कृष्णजी के हाईस्कूल पास करने के बाद पूरा परिवार पुंछ से लाहौर गया था, जहां कृष्णजी ने एफ़.सी.कॉलेज से एम.. और फिर मां के कहने से एल.एल.बी. किया क्योंकि वो चाहती थीं कि कृष्ण जी वक़ील बनें। डिग्री मिलते ही कृष्णजी ने वो मां को थमा दी, कि लो तुम्हारी इच्छा पूरी कर दी लेकिन मैं वक़ालत नहीं करूंगा। इसके बावजूद उन्होंने कुछ दिन प्रैक्टिस की।

लेकिन मन नहीं लगा तो दिल्ली चले आए जहां उन्हें ऑल इण्डिया रेडियो में नौकरी मिल गयी। नौकरी के दौरान उनकी दोस्ती उपेन्द्रनाथ अश्क़ और मण्टो (चित्र में) से हुई। मण्टो मुंबई आए तो उन्होंने कृष्णजी को भी मुंबई बुला लिया। फिर कृष्ण जी पूना जाकर डब्ल्यू.ज़ेड अहमद कीशालिमार पिक्चर्समें काम करने लगे जहां जोश मलिहाबादी से उनकी दोस्ती हुई। सबसे पहले उन्होंनेशालिमारकी फ़िल्ममन की जीतलिखी। फिर अपने भाई महेन्द्रनाथ को हीरो लेकर ख़ुद के लिखे नाटक परनेशनल स्टूडियोज़के लिए फ़िल्मसराय के बाहरडायरेक्ट की।


कृष्णजी का परिवार -

साल 1936 में कृष्णजी की शादी हुई थी लेकिन पत्नी विद्यावती से उनकी कभी निभी ही नहीं। उनकी दो बेटियां और एक बेटा थे। बड़ी बेटी कपिला मुंबई में ही रहती हैं। उनसे छोटी अलका जन्म से ही दिमाग़ी तौर पर बीमार थीं, जिन्हें पूना के मानसिक अस्पताल में भरती करा दिया गया था। 24-25 बरस की उम्र में अस्पताल में ही अलका की मौत हो गयी थी। उनके बेटे रंजन भी मुंबई में ही रहते हैं। विद्यावती जी का इंतक़ाल हुए क़रीब 12 साल गुज़र चुके हैं।

 

मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि  

18 जून 1931 को बनारस, अपनी ननिहाल में पैदा हुई थी। मेरे वालिद प्रोफ़ेसर राशिद अहमद सिद्दीक़ी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में उर्दू के विभाग प्रमुख और उर्दू अदब में एक बड़ा नाम थे। दो बहनों और पांच भाईयों के बीच मैं तीसरे नंबर पर थी। मुझसे बड़े दो भाई थे। घर के अदबी माहौल और वालिद के मार्गदर्शन ने मुझमें पढ़ने का शौक़ पैदा किया। तमाम क्लासिक्स पढ़े। कृष्ण जी काअन्नदाताभी उसी दौरान पढ़ा था। साल 1947 में मेरी शादी हुई, उस वक़्त मैं पढ़ाई कर रही थी। शौहर का ख़ानदान भी अलीगढ़ से ही था। ससुर ख़ानबहादुर सैयद मोहम्मद मुनीर इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस थे। मेरी शादी के कुछ ही दिनों बाद वो रिटायर होकर दिल्ली में आई..एस. ट्रेनिंग सेंटर में लॉ-ऑफ़िसर बन गए थे।

 

मेरी शादीशुदा ज़िंदगी -

मेरे शौहर ख़ुर्शीद आदिल मुनीर शादी से पहले पूना में डब्ल्यू.ज़ेड.अहमद की कंपनीशालीमार पिक्चर्समें रहकर फ़िल्मों में क़िस्मत आज़मा रहे थे। शादी के बाद वो अपने वालिद के पास दिल्ली चले आए जहां उन्होंने कुछ वक़्त मशहूर वैज्ञानिक शांति स्वरूप भटनागर के साथ रहकर काम किया और फिर असिस्टेंट सेल्स टैक्स ऑफ़िसर की नौकरी पर लग गए। उधर मैंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से उर्दू और एजुकेशन में एम.. किया और अलीगढ़ में ही वीमंस कॉलेज में पढ़ाने लगी। बीच-बीच में दिल्ली आती जाती रहती थी। 1950 में मेरा बेटा राशिद पैदा हुआ। लेकिन शौहर के साथ अपने रिश्ते को मैं एक बोझ की तरह ढो रही थी। हमारे बीच कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे हम मेल खाता हुआ कह सकें।

 

हमारी नज़दीकियां -

शौहर के साथ मेरे रिश्ते इस हद तक तल्ख़ हो चुके थे कि बेटे की पैदाईश के बाद से हम कभी भी साथ नहीं रहे। उधर कृष्ण जी अपने छोटे भाई की शादी में दिल्ली आए तो मुझे भी शादी में साथ लेकर गए। कुछ अरसे से हम दोनों एक दूसरे की तरफ़ खिंचाव तो महसूस कर ही रहे थे लेकिन ज़ाहिर नहीं कर पा रहे थे। शादी के बाद मैं अलीगढ़ जाने के लिए स्टेशन पहुंची तो देखा कृष्ण जी वहां पहले से ही मौजूद हैं। उन्होंने मुझसे पूछा मैं अब दिल्ली वापस कब आऊंगी? मैंने कहा तीन-चार दिन बाद तो कहने लगे कि तब तक तो मैं मुंबई लौट जाऊंगा। क़रीब एक हफ़्ते बाद वापस आई तो देखा वो अभी भी दिल्ली में ही थे और मेरा इंतज़ार कर रहे थे। ये साल 1953 का वाक़या है। मुंबई लौटते वक़्त उन्होंने मुझसे दोटूक कह दिया, तो तुम अपनी शादी से ख़ुश हो और मैं। इसी वक़्त फ़ैसला करो कि या तो हम अब कभी नहीं मिलेंगे, या फिर हमेशा साथ रहेंगे।

 

घर-परिवार और समाज -

मुल्क़ के बंटवारे के बाद से दोनों मज़हबों के बीच आपसी भरोसा वैसे ही ख़त्म हो चुका था, उस पर हम दोनों शादीशुदा, हमारी नज़दीकियों को कैसे कोई सहजता से ले सकता था? शुरूआती सुगबुगाहटें मुखर होनी शुरू हुईं और फिर खुले विरोध में बदल गयीं। मामले ने मजहबी शक़्ल इख़्तियार कर ली। कोई भी मेरे इस फ़ैसले से ख़ुश नहीं था। हमें धमकियां मिलने लगीं। मायके और ससुराल, दोनों ही जगह भारी तनाव पैदा हो गया। उसी दौरान मेरे दो भाई पाकिस्तान चले गए और एक बहन की भी शादी पाकिस्तान में हो गयी। मैंने कृष्णजी को ख़त लिखा कि लोग कह रहे हैं कि वो हमें ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे। जवाब मिला, घबराओ मत, कुछ नहीं होगा। साल 1956 में मैं क़ानूनी तौर पर शौहर से अलग हो गयी। तसल्ली सिर्फ़ इस बात की थी कि मैं अपने पैरों पर खड़ी थी और अलीगढ़ में पढ़ा रही थी। लेकिन घर और समाज के बीच मैं बिल्कुल अकेली पड़ चुकी थी।

 

कृष्णजी के साथ निकाह -

साल 1957 में गिनेचुने लोगों की मौजूदगी में नैनीताल के जहांगीराबाद पैलेस में बेहद सादगी के साथ हमारा निकाह हुआ। जहांगीराबाद की महारानी मेरी दोस्त थीं और निकाह के तमाम इंतज़ामात उनकी देखरेख में हुए थे। कृष्णजी के छोटे भाई महेन्द्रनाथ भी हमारी शादी में शरीक़ हुए थे।

 

शादी के बाद की जद्दोज़हद -

साल 1958 में मैंने नौकरी छोड़ दी। उधर कृष्णजी भी दिल्ली चले आए। साल 1958 से 1960 तक हम दिल्ली में रहे। चूल्हा जलाए रखने के लिए मैंने रेडियो में काम किया, साथ में अनुवाद भी करती रही। लेकिन उस दौरान कृष्णजी के पास काम नहीं रहा। साल 1961 में हम मुंबई चले आए। कृष्णजी के लिए मुंबई यक़ीनन बेहद मुबारक साबित हुआ। यहां रहकर उन्होंने शोहरत-इज़्ज़त-पैसा सभी कुछ कमाया। लेकिन सेहत ने उनका ज़्यादा लंबे वक़्त तक साथ नहीं दिया।

 

आख़िरी वक़्त -

कृष्णजी को दिल की बीमारी ने जकड़ लिया था। क़रीब 5 सालों तक वो उस बीमारी से लड़ते रहे। इलाज के लिए रूस और जर्मनी भी गए, लेकिन सेहत में कोई सुधार नहीं आया। और फिर एक रोज़ उन्हें दिल का दौरा पड़ गया। क़रीब 10 दिन वो बॉम्बे हॉस्पिटल में रहे। 8 मार्च 1977 की सुबह उन्होंने मुझसे राईटिंग पैड मांगा। कुछ लिखना चाहा लेकिन लिख नहीं पाए। मेरे कंधे पर सर रखा और फिर बिस्तर पर लुढ़क गए। उनके आख़िरी अल्फ़ाज़ आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं, उन्होंने कहा था,”सलमा, मेरे जाने के बाद भी तुम बंबई मत छोड़ना वजह पूछने पर उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा था, “ऐसे ही रहना जैसे रह रही हो, वरना मेरी बहुत बेइज़्ज़ती होगी

 

अंतिम संस्कार -

कृष्णजी की मौत भी विवादों से अछूती नहीं रही। कट्टरपंथी अड़ गए कि चूंकि कृष्णजी ने इस्लामी रीति-रिवाज से निकाह किया था इसलिए वो मुसलमां थे, और इसीलिए उनका अंतिम संस्कार भी इस्लामी रीतिरिवाज से होना चाहिए। मामला बेहद नाज़ुक़ था। उधर कृष्णजी के भाईयों ने भी इस बात पर ऐतराज़ नहीं जताया। ऐसे में मुझे स्टैंड लेना पड़ा कि भले ही हमारा निकाह हुआ हो लेकिन कृष्णजी आख़िरी सांस तक हिंदू थे, और उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाजों से ही होगा।


आज -         

मेरे बेटे राशिद मुनीर मुंबई में ही हैं और मीरा रोड पर रहते हैं। फ़िल्म इंस्टिट्यूट से फ़िल्म मेकिंग सीखने के बाद उन्होंनेपांच लोफ़रऔरसिकंदरनामाजैसे कुछ शो बनाए थे, जिनमेंसिकंदरनामामेरे ही उपन्यास पर था। राशिद की बेटी कौसर मुनीर आज गीतकार की हैसियत से ख़ासी पहचान बना चुकी हैं। कौसर ने अभिनेता निर्मल पांडेय से शादी की थी, हालांकि वो शादी कामयाब नहीं रही थी। रहा सवाल मेरा, तो एक ज़माना था जब हमारी शामें अली सरदार जाफ़री, रामानंद सागर, बच्चन जी, मजरूह साहब, दिलीप कुमार जैसे ज़हीन लोगों के बीच गुज़रा करती थीं। लेकिन ज़िंदगी के इस आख़िरी पड़ाव पर मैं बिल्कुल तन्हा हूं। बस अगर कुछ साथ है तो बीते दौर की वो ख़ुशनुमा यादें जिनमें कृष्णजी हर लम्हा मेरे क़रीब मौजूद होते हैं।

(सलमा सिद्दीक़ी जी का निधन 13 फ़रवरी 2017 को 86 साल की उम्र में मुम्बई में हुआ|)  

........................................................प्रस्तुति: शिशिर कृष्ण शर्मा (मुंबई

7 comments:

  1. एक सांस मे पढ गया. दो सर्जको के बीच अकसर प्रेम पनप ही जाया करता है, सलमा सिद्दीकी के अकेलेपन को मह्सूस कर सकता हूँ . इस सुंदर लेख के लिये हार्दिक धन्यवाद

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  2. An emotional account, Shishir ji, of our favourite writer. Many thanx.

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  3. एक ही सांस में पूरा पढ़ डाला। लगा आँखों के समक्ष कोई फिल्म चल रही हो। अपने पिता जी को कृष्ण चंदर जी के उपन्यास ‘एक गधे की आत्मकथा’ की तारीफें करते सुना था। इस आलेख के माध्यम से विस्तार से जाना उनके बारे में। आदरणीया सलमा जी के संघर्ष को सलाम। ज़िंदगी की इस ऊबड़-खाब़ड़ डगर में भले ही कुछ वर्षों के लिए उन्हें कृष्ण जी का साथ मिला, लेकिन वो अर्सा भले ही छोटा रहा हो पर उनके लिए खुशगवार रहा बल्कि आज वही उनकी धरोहर है। शिशिर जी बहुत-बहुत आभार सलमा जी जैसी शख्सियत से मिलवाने के लिए। -- नीलम शर्मा ‘अंशु’

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  4. किताबों में रखे पुराने फूल या ख़त जब कभी अचानक हाथ आ जाते हैं तो दिमाग़ में एक फ़िल्म चालू हो जाती है.हम अपना अतीत जीने लगते हैं.अभी आपके माध्यम से सलमा जी की स्मृति यात्रा पर जाना ऐसा ही अनुभव था.

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  5. iise or khubsoorat dhang se likha jaa sakta hai......

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  6. महान साहित्यकार श्री कृष्ण चंदर. उनकी हर रचना एक क्लासिक है. एक गधे की आत्मकथा, एक गधा नेफा में, एक वायलिन समुंदर के किनारे और न जाने ऐसी कितनी अमर रचनाएं हैं जो आपकी भावनाओं में ज्वार ला देती हैं. उनकी बहुत सी रचनाओं में उनका आत्मकथात्मक विवरण मिलता है. लेकिन अफसोस की बात है कि 1945 से लेकर के 1970 तक का वह लेफ़्टिस्ट साहित्य आज उपलब्ध भी नहीं है. आज के साहित्य लेखन के गिरते हुए स्तर को देखते हुए उस युग को स्वर्ण युग कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. ------सूर्यकांत एम. ओझा

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  7. बहुत ही हृदयस्पर्शी वर्णन है दो महान लेखको का जिसके बारे मे मुझे कुछ भी जानकारी नहीं थी...हार्दिक आभार

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