Sunday 7 December 2014

“नादयोगिनी के रचयिता" – मोहिंदरजीत सिंह

नादयोगिनी के रचयिता" मोहिंदरजीत सिंह

मुलाक़ात –  प्रख्यात संगीतज्ञ मोहिंदरजीत सिंह के साथ

नादयोगिनीके रचयिता.......!!!

(मोहिंदरजीत सिंह)

भारतीय संगीतज्ञों की मान्यता है कि वायलिन के निर्माण के मूल में रावणहत्था ही है। लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूं क्योंकि इन दोनों वाद्यों की आकृतियां बिल्कुल अलग हैं। मेरा मानना है कि वायलिन को आकार स्त्री से मिला। ठीक उसी प्रकार, जैसे सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ आचार्य बृहस्पति के अनुसार वीणा का निर्माण देवी पार्वती की छाया को देखकर हुआ था”..........

..........“नादयोगिनी के मूल में वायलिन और रावणहत्था दोनों हैं।

........सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ मोहिंदरजीत सिंह, ‘व्यंग्योपासनाके साथ बातचीत में...!!!

मेरा जन्म, बचपन और किशोरावस्था -

मेरा जन्म 6 जून 1937 को शेखुपुरा (अब पाकिस्तान) के एक सिख परिवार में हुआ था। मेरे पिता ठेकेदार और मां एक गृहिणी थीं। 5 भाईयों में मैं तीसरे नंबर पर था। मैं बाबा चेतनदास हाईस्कूलमें पांचवीं में पढ़ रहा था कि तभी बंटवारा हुआ और हमें भारत आना पड़ा। क़रीब 6 महिने अमृतसर में रहने के बाद हम लोग नाभा चले गए जहां से मैंने पांचवीं और छठवीं की पढ़ाई की। 1951 में हम लोग नाभा छोड़कर दिल्ली के पहाड़गंज में आ गए। करोलबाग के खालसा स्कूल से मैंने स्कूली पढ़ाई पूरी की और फिर अजमेरी गेट के दिल्ली कॉलेज में दाख़िला ले लिया। साथ ही गंधर्व महाविद्यालय में पंडित विनयचन्द्र मौद्गल्य से वायलिन और गायन भी सीखता रहा। दिल्ली कॉलेज से मैंने अर्थशास्त्र में बी.ए.(ऑनर्स) किया।

संगीत की तरफ़ रूझान  -

गाने का शौक़ मुझे बचपन से ही था। मेरे नाना और मां बहुत अच्छा गाते थे। मां ही मेरी पहली गुरू थीं। फिर मैं रिश्ते के एक मामा से संगीत सीखने लगा। 6-7 साल की उम्र में मैंने गुरूद्वारे में एक शादी में शास्त्रीय बंदिश गायी। लोगों ने ख़ुश होकर बख़्शीश दी, कुल 26 रूपए मिले जो उस जमाने में बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी। इससे और ज़्यादा सीखने की और और भी बेहतर करने की प्रेरणा मिली। 

दिल्ली से मुम्बई

मेरे बड़े भाई गाड़ियों के मैकैनिक थे। वो साल 1955 में मुम्बई आ गए थे। दक्षिण मुम्बई के आग्रीपाड़ा के इलाक़े में उनका अपना गैराज था। बी.ए.करने के बाद साल 1958 में मैं भी काम की तलाश में भाईसाहब के पास मुम्बई चला आया। एक साल मैंने गोरेगांव (ईस्ट) की मोहन प्रिंटिंग एंड डाईंग वर्क्समें काम किया। कपड़ों पर छपाई की ये फ़ैक्ट्री महेन्द्र कपूर के पिता की थी। यहीं पर मेरी दोस्ती महेन्द्र कपूर से हुई जो हुस्नलाल-भगतरामकी जोड़ी के पंडित हुस्नलाल के शागिर्द थे। के.एल.सहगल के बेटे गोगी (मदनमोहन सहगल) भी मेरे अच्छे दोस्त बन गए थे। गोगी, महेन्द्र कपूर और मेरी शामें किंग्स सर्किल के रेस्टॉरेण्ट्स में या कॉलेज लेन - माटुंगा में गोगी के घर पर गाते-बजाते गुज़रती थीं। महेन्द्र कपूर के ज़रिए ही मैं पंडित हुस्नलाल जी से मिला और उन्होंने मुझे अपना शागिर्द बना लिया। पंडित हुस्नलाल जी चोटी के वायलिन वादक और शास्त्रीय-उपशास्त्रीय गायक थे। मैं उनसे वायलिन और गायन सीखने लगा। साल 1959 में रेलवे में नौकरी मिली तो मुझे जयपुर जाना पड़ा, हालांकि उस दौरान भी मैं छुट्टी लेकर अपना ज़्यादातर वक़्त गुरूजी की शागिर्दी में मुम्बई में ही गुज़ारता रहा। क़रीब 3 साल बाद साल 1961 में मैंने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। 
    
सीखने की ललक  -

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ ही मेरा रूझान पाश्चात्य संगीत की तरफ़ भी होने लगा था। पंडित रामप्रसाद जी से मैंने पाश्चात्य नोटेशंस और जौसिक मैंजिस से वायलिन पर पाश्चात्य संगीत की शिक्षा ली। उसी दौरान पंडित हुस्नलाल जी और पंडित शिवराम जी के साथ फ़िल्मों में भी वायलिन बजाने लगा। 2 फ़िल्में (ओ.पी.) नैयर साहब के साथ भी कीं और उस दौरान उनसे हुई मेरी दोस्ती उनके आख़िरी वक़्त तक बनी रही। साल 1967 में मुझे स्वतंत्र रूप से एक फिल्म मिली, ‘ज़ुल्फ़ के साए साएजो पूरी तो नहीं हो पायी लेकिन इस फ़िल्म से जगजीत सिंह और सुलक्षणा पंडित ने ज़रूर प्लेबैक में अपना करियर शुरू किया। अधूरी रह गयी इस फ़िल्म के हीरो राकेश पांडे थे। 
  
पंडित हुस्नलाल / चित्र : श्रीमती नरिंदर कौर 
पंडित हुस्नलाल जी का निधन -

28 दिसम्बर 1968 को दिल का दौरा पड़ने से पंडित हुस्नलाल का अचानक ही दिल्ली में निधन हो गया था। ये मेरे और मेरी संगीत शिक्षा के लिए बहुत बड़ा धक्का था। लेकिन पंडित हुस्नलाल जी के बड़े भाई पंडित भगतराम जी ने मुझे गुरू की कमी महसूस नहीं होने दी। पंडित भगतराम जी को गायन के साथ ही हारमोनियम, एकॉर्डियन और ऑर्गन में भी महारत हासिल थी। पंडित हुस्नलाल जी के गुज़र जाने के बाद मुझे पंडित भगतराम जी ने अपनी शागिर्दी में ले लिया। मैं लगातार उनसे शास्त्रीय गायन की शिक्षा लेता रहा। एक बात मैं ख़ासतौर से बताना चाहूंगा कि हुस्नलाल-भगतरामसुनकर आम धारणा यही बनती है कि पंडित हुस्नलाल जी, पंडित भगतराम जी से बड़े रहे होंगे। लेकिन ये सच नहीं है। पंडित हुस्नलाल जी तीन भाईयों में सबसे छोटे थे। सबसे बड़े भाई पंडित अमरनाथ अपने दौर के नामी संगीतकार थे जिनका 1940 के दशक के आख़िर में निधन हो गया था। पंडित भगतराम मंझले और पंडित हुस्नलाल सबसे छोटे थे। जोड़ी के तौर पर छोटे भाई का नाम पहले आने की वजह हुस्नलाल-भगतरामजैसी लयबद्धता या रिदम का भगतराम-हुस्नलालमें न होना ही रही होगी। 
 
रावणहत्था
कानों में गूंजती वो आवाज़

संगीत पूरी तरह से मेरी ज़िंदगी में रच-बस चुका था। वायलिन-वादन और गायन के कार्यक्रमों और छात्रों को संगीत सिखाने के साथ ही मैं बतौर संगीतकार भी व्यस्त हो चला था। ख़ाली वक़्त में या नींद में भी मेरे मनो-मस्तिष्क में बंदिशें ही घूमती रहती थीं। अचानक एक रोज़ सपने में मेरे कानों में एक अजनबी सी आवाज़ गूंजी। उसके बाद दो बार फिर से ऐसा हुआ तो मुझे महसूस हुआ कि ये वायलिन और रावणहत्था की मिली-जुली सी आवाज़ थी। मैंने वायलिन और रावणहत्था पर शोध करना शुरू किया। कहा जाता है कि रावणहत्था की उत्पत्ति रावण के ज़माने में श्रीलंका में हुई थी। ये वाद्य बांस के डण्डे और नारियल के खोल से बनता है और भारत में इसे मुख्यत: राजस्थान और गुजरात में बजाया जाता है। उधर वायलिन के विषय में माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति मध्य एशिया में हुई थी। भारतीय संगीतज्ञों की मान्यता है कि वायलिन के निर्माण के मूल में रावणहत्था ही है। लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूं क्योंकि इन दोनों वाद्यों की आकृतियां बिल्कुल अलग हैं। मेरा मानना है कि वायलिन को आकार स्त्री से मिला। ठीक उसी प्रकार जैसे सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ आचार्य बृहस्पति के अनुसार वीणा का निर्माण देवी पार्वती की छाया को देखकर हुआ था। वायलिन और रावणहत्था में केवल इतनी समानता है कि ये दोनों ही गजसे बजाए जाने वाले तारवाद्यहैं।

नादयोगिनी का निर्माण

आर्माडिलो
कानों में गूंजी वो आवाज़ मुझे एक ऐसा वाद्य बनाने के लिए प्रेरित करने लगी जो वायलिन और रावणहत्था का मिलाजुला रूप हो। और मैं प्रयोगों में जुट गया। साल 1973 में पंडित भगतराम जी के निधन के बाद गुरू की तलाश मुझे प्रोफ़ेसर दामले तक ले आयी थी। दक्षिण मुम्बई के ऑपेरा हाऊस में रहने वाले प्रोफ़ेसर दामले पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के शिष्य थे, जिनके पुत्र दत्तात्रेय विष्णु (डी.वी.) पलुस्कर को आज भी लोग एक महान शास्त्रीय गायक के तौर पर याद करते हैं। मैं प्रोफ़ेसर दामले से शास्त्रीय बंदिशें सीखने लगा।

नादयोगिनी
प्रोफ़ेसर दामले के घर पर आर्माडिलो का एक बेहद हल्का लेकिन मज़बूत कवच रखा हुआ था। आर्माडिलो वो इकलौता स्तनपायी जानवर है जिसके शरीर पर कछुए की तरह कवच होता है। ये जानवर दक्षिण अमेरिका में पाया जाता है, हालांकि आर्माडिलोएक स्पेनिश शब्द है। मैंने प्रोफ़ेसर दामले से अपने नए वाद्य के लिए आर्माडिलो के कवच के इस्तेमाल की इजाज़त मांगी तो उन्होंने सहर्ष मुझे वो कवच दे दिया। लगातार प्रयोगों के बाद साल 1980 में तैयार हुए और गजसे बजने वाले इस वाद्य में वायलिन की तरह 4 मुख्य तारों के अलावा अलग से 16 रेज़ोनेटरी यानि तरब के तार भी जोड़े गए थे। बनने के बाद जब मैंने इसे बजाया तो मुझे इसकी आवाज़ में वायलिन और रावणहत्था के साथ-साथ सरोद, सारंगी और दिलरूबा की ध्वनि का भी आभास हुआ। इस वाद्य को नादयोगिनीनाम उन्हीं दिनों मेरे घर पर पधारे एक संत ने दिया था। 

..........नादयोगिनी के मूल में वायलिन और रावणहत्था दोनों ही वाद्य हैं। 



मेरा संगीत - 

गायन में मेरे प्रिय राग मारवा और जोगकंस हैं तो वादन में जोगकंस, मधुवंती, भूपाली और तोड़ी राग मुझे अत्यंत प्रिय हैं। 1989 में बनी राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त पंजाबी फ़िल्म मढ़ी दा दीवामें मेरे संगीत को लोगों ने बेहद पसंद किया। साल 1991 में मेरे द्वारा संगीतबद्ध फ़िल्म दीक्षाने भी राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था। साल 1993 में दूरदर्शन के लिए बनी टेलीफ़िल्म हिंडोलाऔर संस्कृत भाषा में बने धारावाहिक मृच्छकटिकमके अलावा संकल्पऔर मीराबाईसहित कई टेलीफ़िल्मों और धारावाहिकों में मैंने संगीत दिया। मेरी गायी और संगीतबद्ध की गई कई प्राईवेट अलबमें भी बाज़ार में आयीं। पार्श्वगायक जसपाल सिंह मेरे शागिर्द थे, जिनकी मेरे संगीत में गायी ग़ज़लों की एक अलबम रंग-ए-ग़ज़लबेहद सराही गयी थी। इसके अलावा राजेन्द्र और नीना मेहता की अलबम अलविदा ओ सनमका संगीत भी मेरा ही था। हाल ही में रेकॉर्ड हुई एक अलबम में मैंने भारतीय और पाश्चात्य संगीत के फ़्यूज़न के साथ गीता के 100 श्लोक अलग अलग रागों में संगीतबद्ध किए और गाए हैं।

अमेरिका के न्यूयॉर्क, न्यूजर्सी, फ़िलाडेल्फ़िया और वॉशिंगटन शहरों में लगातार 5 सालों तक मेरे कार्यक्रम होते रहे। इसके अलावा अमेरिका के कई संगीत-विद्यालयों में मुझे अतिथि प्रवक्ता के तौर पर आमंत्रित किया जाता रहा। अमेरिका में आज भी मेरे कई शिष्य संगीत साधना में जुटे हुए हैं।

श्रीमती नरिंदर कौर के साथ 
मेरा परिवार -  
 
मशहूर चित्रकार और कला-निर्देशक (स्वर्गीय) मुरलीधर रामचन्द्र (एम.आर.) आचरेकर की शिष्या रह चुकी मेरी पत्नी नरिंदर कौर एक जानी-मानी चित्रकार हैं। बड़ा बेटा चिंटू सिंह मशहूर गिटार और रबाब वादक के तौर पर अपनी पहचान बना चुका है और छोटा बेटा मिंटू सिंह विज्ञापन जगत का जाना-माना निर्देशक है। इसके अलावा मेरे परिवार का एक बेहद अहम हिस्सा और भी है। ...और वो हैं मेरे शिष्य-शिष्याएं जो पूरी ऊर्जा के साथ संगीत साधना में जुटे हुए हैं।  
.................................................................प्रस्तुति : शिशिर कृष्ण शर्मा 

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