“उसका
आना”
.............शिशिर
कृष्ण शर्मा
आज
सुबह नींद
अलार्म से
पहले ही
खुल गयी...मोरी
अटरिया पे
कागा बोला
था...
“कागा?...ये
कहां से
रास्ता भूल
गया इतने
बरसों बाद?”
छत
पर लटके
पंखे के
प्यालेनुमा ऊपरी
हिस्से में
गौरैया ने
रातोंरात घोंसला
बना लिया
था...
”अरे,
तू ज़िंदा
है गौरैया?”...उसकी
चहचहाट कानों
को बहुत
ही भली
लग रही
थी...
अचानक
ही सर
घूम गया...ये
पक्का टाइम
मशीन वाला
मामला है...मैं तो अपने
बचपन में
लौट आया
हूं...कौवा और
गौरैया बचपन में ही देखे थे, अब
तो वो
बरसों से
ग़ायब हैं|...अरे
हां, मां भी
तो मेरे
बगल में
ही सो
रही है...मैंने
मां के
गले में
हाथ डाला
तो उन्होंने
हाथ झटक
दिया...
”क्या प्रॉब्लम है?...सोने दो मुझे...कभी उठ के वाक पे भी चले जाया करो!”
”क्या प्रॉब्लम है?...सोने दो मुझे...कभी उठ के वाक पे भी चले जाया करो!”
‘ओह
माय गॉड!...ये
तो श्रीमती
जी हैं!’...
अपना चेहरा
टटोला तो
मूंछों को
जगह पर
मौजूद पाया|
टाइम
मशीन वाला
ख्याल सिरे
से ग़लत
निकला...
छठी
मंजिल के
अपने फ्लैट
की खिड़की
से झांककर
देखा तो
नीचे पूरी
लेन जगमगा
रही थी...स्ट्रीटलाइट
के महीनों
से फ्यूज़
पड़े बल्ब
कोई रातोंरात
बदलकर चला
गया था...सड़क
के दोनों
तरफ ठूंठ
से खड़े
पेड़ों की
कतारें आज
कोंपलों से
लदी हुई
थीं... बिल्डिंग
के सामने
अपना रात
वाला वाचमैन
मुस्तैदी से
पहरा देता
नज़र आया...
“इसे
क्या हुआ?...इसका
तो ये
कुर्सी पे
बेसुध लटके
होने का
टाइम है?”
दूर
सह्याद्री की
पहाड़ियों के
पीछे से
पौ फटती
नज़र आयी...बेहद
चमकदार...और
दिनों से
ज़्यादा लाल...ज़्यादा
सुनहरी...
आखिर
ये क्या
मामला है?...पूरी
दुनिया ही
बदली हुई
नज़र आ
रही है?
सब ओर
प्रसन्नता...चहुंओर
उत्साह ...और
तभी कागा
दोबारा अटरिया
पे आ
बैठा...उसकी
कांवकांव भी
तो आज
कानों में
कोयल की
कूक की
सी मिठास
घोल रही
थी...?
“सुबह
सुबह कौवा?...कौन
आ रहा
है आज?”...मैं
बड़बड़ाया...
“आ
’रहा’ नहीं, आ ’चुका’ है!”
हैं?...इंसान
की सी
आवाज़?...ये कौवा
है या
तोता?...मेरे मन
में सवाल
उठा... मैंने
पूछा – “कौन
आ चुका
है?”
”GST” - उसने
कहा और
फुर्र से
उड़ गया...
........................................................प्रस्तुति : शिशिर कृष्ण शर्मा
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