"घूरे
में
रेवड़ी"
..................शिशिर
कृष्ण
शर्मा
मामाजान
की दुख़्तर
के फ़रज़न्द
ने कहा,
लीजिए
ख़ाल:जान
एक आप
भी थामिए,
इफ़रात
में भरे
पड़े हैं
गोदाम
में...और
ख़ाल:जान
फ़ौरन लपक
पड़ीं।
ये 'पेड़
के गिरने
से धरती
के हिलने'
के महज़
दो बरस
बाद का
वाक़या
था, मौक़ा
कुछ ऐसा
था कि
'पेड़
और धरती'
की उस
धमक की
तरफ़ से
ख़ाल:जान
फ़ौरन ही
'गांधी
के तीन
बन्दरों' में
तब्दील
हो गयीं।
"...बस
लपक लो
!!!"
बरसों-बरस
ग़ुज़रते
गए...फ़रज़न्द
भरी जवानी
में अल्लामियां
को प्यारे
हो गए...फरज़न्द
की बेवा
कठपुतलियां
नचाने
लगीं...गुज़रते
वक़्त के
साथ कठपुतलियों
का खेल
चोरी-डकैती
और ज़ुल्म-ओ-सितम
में तब्दील
हो गया...बेरहम
वक़्त के
हाथों
घूरे के
हवाले
हो चुकीं
ख़ाल:जान
अदा-ए-'गांधी
के तीन
बन्दर' लिए
घूरे पर
पसरी रहीं...पांव
क़ब्र में
लटकते
चले गए...यकायक
कुछ धमक
सी महसूस
हुई तो
बन्द आंखों
और बन्द
कानों
वाले दोनों
बन्दरों
के हाथ
अपनी अपनी
जगह से
सरक गए...धमक
अब पहले
से ज़्यादा
साफ़ थी...ज़बर्दस्त
! ...ख़ाल:जान
चौंकीं, "अरे,
ये तो
फ़रज़न्द
की बेवा
और उनका
फ़रज़न्द
हैं?...वो
भी मय
कठपुतलियां?...तो
ये भी
घूरे के
हवाले?...आह
! बेरहम
वक़्त !!"
तीसरा
बंदर छटपटाने
लगा लेकिन
लाख कोशिश
के बावजूद
उसके हाथ
अपनी जगह
पर ही
जमे रहे।
लेकिन
कब तक?
आख़िर 'बिल्ली
का भाग...!'
- छींका
टूटा और
ज़िंदगी
की गहराती
शाम के
कुछेक
ख़ुशगवार
लम्हों
ने सुर्ख़ियां
बटोरने
का मौक़ा
दे ही
दिया।...पांव
फ़ौरन ही
क़ब्र से
बाहर निकल
आए और
हथेलियों
ने बन्दर
के मुंह
को आज़ाद
कर दिया।
"" ये
लो !...नहीं
चाहिए
मुझे !!... वापस
रख लो
इसे !!!
""
(एक
लाख का
चेक भी
नत्थी
किया साथ
में या
नहीं?...बाय
द वे
29
बरस का
ब्याज़
कितना
बनता है
एक लाख
पर मियां
फुक्कन?)
....................................................................................................................
(मूलत: फ़ेसबुक पोस्ट : दिनांक 08.10.2015)
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