“सास
का
झांपड़”
(झांपड़
के सभी
पर्यायवाची
शब्दों
के साथ)
रचनाकार
–
शिशिर
कृष्ण
शर्मा
(कविराय)
ये
कविता
उत्तर
भारत के
एक सुप्रसिद्ध
केन्द्रशासित
प्रदेश
में घटी
सत्यघटना
से प्रेरित
और उस
पर आधारित
है! कृपया
इसे उक्त
दुर्घटना
को विज़ुअलाईज़
करते हुए
पढ़ें, आनंद
चौगुना
हो जाएगा !!
नैनों
में फुलझड़ियां
छूटीं, कान
में बजे
पटाखे
!
तन-बदन
में मची
दिवाली
जब, सास
ने दिया
घुमा के
!!
हो
गया भेजा
सुन्न
जमाई का,
रह गया
लल्लू
खड़ा का
खड़ा !
पलभर में ही बत्ती
जली, ‘अरे,
ये तो
मम्मी
ने चांटा
जड़ा’??
एक
गाल हुआ
पका टमाटर,
दूजा सिंका
हुआ पापड़
!
रोने
के रहे
न हंसने
के, जब
पड़ा सास
का झांपड़
!!
प्राण
अटक गए
आन हलक
में, दिन
में दिख
गए तारे
!
धरी
रह गयी
जमाईगिरी
जब, सास
ने दो
धप मारे
!!
तिरलोक
दरसन भये,
सांस रूकी
चकराए
नैन !
ऐसा
ग़ज़ब का
पड़ा तमाचा,
भरी दुपहरी
हो गयी
रैन !!
हाल्लण
आया ज़ोरों
का जब
चपत पड़े
करारे
! (हाल्लण–भूकंप)
हिल
गया पूरा
गात, गात
के फूट
पड़े सब
फ़ौव्वारे
!! (गात–शरीर)
हाथ-पांव
कांपन
लगे, पेट
जमाई का
खौल पड़ा
!
गीला-पीला
चहुं ओर
भया, जैसे
ही सास
का धौल
पड़ा !!
‘स्नेह’,
चाव और
मान से
इक दिन,
पैर थे
जिसके
पूजे !
रैपट-पूजा
से मुखड़ा
उसका, वड़ा-पाव
सा सूजे
!!
थपड़ाया
चेहरा
सहलावे, सोचत
गऊ सा
बेचारा
!
पैर
धरा यहां
गलती से
तो, फिर
न छितूं
कहीं दोबारा
!!
(छितूं–पिटूं)
कहत
शिशिर
ससुराल
में, पंगा
कभी मत
लेना !
औ’...सास
अगर हो
‘बम
का गोला’,
दिखते
ही बित्ती
देना !!
(बित्ती देना –
बिना पीछे देखे भागते चले जाना)
पवनसुत
हनुमान
की जय
!!!!!!!!!!!!!!!!!!
(सभी
बेचारे
सास-पीड़ित
जमाईयों
के प्रति
सहानुभूतिपूर्वक
समर्पित!)
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